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अच्छा, यह पूछा जाये कि ईश्वर सृष्टि क्यों बनाता है ? क्या ईश्वर का स्वभाव है ? उत्तर में यदि हाँ कहते हैं कि सृष्टि निर्माण करना ईश्वर का स्वभाव विशेष है तो वह स्वभाव ईश्वर के साथ सदा ही रहेगा । यदि ईश्वर शान्त नहीं और नित्य है तो वह सृष्टि निर्माण का स्वभाव भी नित्य रहेगा। तो फिर उस स्वभाव के अधीन नित्य ईश्वर सदाकाल सृष्टिनिर्माण का कार्य ही करता रहेगा। फिर वह सृष्टिनिर्माण को छोड़कर अन्य कुछ भी करे यह सम्भव ही नहीं है । तो फिर नित्य ईश्वर नित्य काल तक निरन्तर सतत सृष्टि निर्माण करता ही रहेगा। यह सातत्य रहेगा। चूँकि ईश्वर स्व-सत्ता से नित्य है और सृष्टिरचना का स्वभाव भी नित्य है, तो सृष्टिरचना का कार्य भी निरंतर सतत चलता ही रहेगा। और यदि यह स्वीकार करेंगे तो सृष्टि तो अपूर्ण ही माननी पड़ेगी। कभी भी सृष्टि पूरी रची गई है यह कह ही नहीं सकेंगे। चूँकि जो कार्य अविरत चल रहा हैं, चालू है, उसे समाप्त हुआ यह कैसे कह सकेंगे? तो तो फिर नित्य ईश्वर सदा काल ही सृष्टि निर्माण करता रहेगा, तब तक सदा काल ही सृष्टि रचना पूर्ण हो गई है, यह कहना सम्भव भी नहीं होगा। हजारों लाखों साल के बाद भी पूछोगे तो भी उत्तर यही मिलेगा कि अभी भी रचनाकार्य जारी है। चल रहा है। अच्छा, यह स्वीकारने पर ईश्वर को सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी कैसे कह सकेंगे? सर्वशक्तिमान होते हुए भी ईश्वर इतने लम्बे काल से कार्यरत होते हुए भी अभी तक भी एक सृष्टिरचना का भी कार्य समाप्त नहीं कर सका है तो फिर सृष्टिरचना ही पूरी नहीं हुई है, वही अपूर्ण है, तो फिर प्रलय करेगा किसका? क्या रचना पूरी किये बिना ही उसका प्रलय कैसे संभव है ? जो पुत्र जन्मा ही नहीं वह मर गया यह परस्पर विरोधाभास खड़ा करेगा।
दूसरी तरफ ईश्वर के जिम्मे काम भी कई हैं । पहले सृष्टि निर्माण करना, फिर पालन करना, फिर जीवों को कर्मफल देना, फिर सृष्टि का प्रलय करना, इत्यादि । मान लो, काम ज्यादा है, इसलिए ईश्वर के तीन रूप की व्यवस्था की है । एक सृष्टिकर्ता, दूसरा पालनहार
और तीसरा प्रलयकर्ता संहारक ! तो कर्मफल दाता के रूप में क्यों किसी की व्यवस्था नहीं है? फिर ईश्वर को एक रूप में ही मानें या अनेक रूप में माने? चूंकि कार्यव्यवस्थानुसार तीन रूप स्वीकारे गये हैं, तो फिर सष्टि में तो एक नहीं, अनेक कार्य हैं । पृथ्वी, पर्वत, समुद्र, नदी, नद, वृक्ष, स्वर्ग, नरक, पाताल, पशु-पक्षी, कृमि, कीट-पतंग आदि सैकड़ों, हजारों, लाखों, नहीं, अगणित कार्य हैं । तो ईश्वर क्या अपने अगणित रूप करता है ? या अगणित ईश्वर मिलकर कार्य करते हैं? या एक ही ईश्वर क्रमशः एक के बाद एक कार्य करता है? या किस तरह की व्यवस्था है ? इस समस्या को हल करने के
संसार की विचित्रता के कारण की शोध
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