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________________ इच्छा, मूर्छा-कामः स्नेहो, गार्य ममत्वमभिनन्दः । अभिलाष इत्यनेकानि रागपर्याय वचनानि ।। - इच्छा, मूर्छा, काम, स्नेह, गृद्धता, ममत्व, अभिनन्द, अभिलाषा इत्यादि राग के पर्यायवाची शब्द हैं। यदि इच्छा ही राग का रूपान्तर है, पर्यायवाची समानार्थक शब्द है, तो फिर ईश्वर को रागादि युक्त ही मानना पड़ेगा। और रामादि युक्त हुआ तो वीतरागता नहीं रहेगी । वीतरागता का धरातल भूकम्प से हिलने लगा तो फिर उस पर रही हुई ईश्वरत्व की इमारत का स्थिर रहना सम्भव नहीं है । रागादि कर्मजन्य है । शुभाशुभ कर्म ही रागादि के कारण हैं। उत्तराध्ययन सूत्र में स्पष्ट कहा है कि “रागो य दोषो वि य कम्म बीयं” राग-द्वेष ही कर्म के बीज हैं। इन्हीं बीजों से सारा कर्मवृक्ष खड़ा होता है । यदि ईश्वर भी रागादि कर्म कारणों के अधीन होकर इच्छा से प्रेरित होता है और संसारस्थ मनुष्य पशु-पक्षी आदि सभी जीवों की भी यही दशा है । वे भी रागादि बीजजन्य कर्म-कारणों के विपाक स्वरूप इच्छादि तत्त्व से प्रेरित होकर ही प्रवृत्ति करते हैं तो फिर दोनों में अन्तर क्या रहा? __अच्छा, चलो भाई ! मान भी लें कि इच्छा के अधीन ईश्वर सृष्टि की रचना करता है तो ईश्वर ने एक को सुखी, एक को दुःखी, एक को ऊँचा, एक को नीचा, एक को विष्ठा खानेवाला सूअर और दूसरे को मेवा-मिठाई खानेवाला क्यों बनाया? यदि सब कुछ ईश्वर के अधीन है तो क्या ईश्वर अपनी सृष्टि अत्यधिक सुन्दर, निर्दोष, सर्वदोषक्षतिरहित नहीं बना सकता है? ऐसा क्यों? वह ऐसी सृष्टि बनाए जिससे सृष्टि के मनुष्यादि भी ईश्वर को एकवाक्यता की प्रशंसा के शब्दों में याद करें । लेकिन वह भी नहीं । एक तरफ संतान के अभाववाले को संतान देकर दूसरी तरफ संतान की जन्मदाता माता को उठा लेता है । अब और भी समस्या बढ़ गई। ऐसे कारणों से ईश्वर की दया करुणा के विषय में शंका उत्पन्न होती है । क्यों नहीं ईश्वर अपनी दया करुणा का उपयोग करता है जबकि उसमें पड़ी है तो? — हम वर्तमान विज्ञान युग में देखते हैं कि एक मशीन यदि लाखों वस्तुएं ग्लास आदि बमाती है तो वे लाखों ग्लास एक सरीखे बनाती है । एक से दूसरे में कोई भेद नहीं । परन्तु यहाँ ईश्वर की रचना में तो वह भी नहीं है । एक माँ के चार पुत्र हैं तो वे भी वर्णादि में भी समान नहीं हैं । उसी तरह स्वभावादि में भी समान नहीं है । एक का स्वभाव दूसरे से नहीं मिलता, यह कैसी विषमता है । समुद्र का इतना पानी होते हुए सारा ही खारा है । १३६ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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