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जबकि सर्वज्ञ ईश्वर दयालु है । परम करुणालु है । दया का भण्डार और करुणा का सागर है । और कुछ ईश्वर में माने या न मानें परन्तु ईश्वर में राग-द्वेष रहितता तो माननी ही पड़ेगी। चूँकि मनुष्य-पशु-पक्षी सभी राग-द्वेषग्रस्त जीव हैं। और यदि ईश्वर भी रागादियुक्त हो तो ईश्वर में क्या श्रेष्ठता रही? फिर तो रागादि भावों से युक्त मनुष्य-पशु-पक्षी और ईश्वर रागादि की कक्षा में सभी समान समकक्ष हुए । यदि रागादि रहते हुए भी ईश्वर को ईश्वर-महान-सर्वज्ञ कहेंगे तो उसी रागादिवाले मनुष्य की सृष्टिकर्तृत्व शक्ति नहीं है। वह तो कुम्हार की तरह घड़े ही बना सकता है। नदी-नद-वृक्ष–पर्वत–पृथ्वी-समुद्रादि बनाने में सक्षम नहीं हैं । यदि रागादिमान ईश्वर को सृष्टिकर्ता कहें तो सर्व सृष्टि एकसी एकसरीखी क्यों नहीं है ? सृष्टि में विषमता क्यों भरी पड़ी है ? क्या दयालु-करुणालु ईश्वर भी एक को राजा, एक को रंक, एक को अमीर, एक को गरीब, एक को सुखी, एक को दुःखी इत्यादि क्यों बनाता है ? ऐसी विषम सृष्टि ईश्वर क्यों बनाता है ? यदि राग-द्वेष के अधीन ईश्वर हैं तो ही यह विषमता और विचित्रता है। यदि आप ना कहते हैं कि रागादि नहीं है तो विचित्रता-विषमता जो जगत् में प्रत्यक्ष गोचर है इसका क्या कारण है ? यहाँ ईश्वरवादी उत्तर देते हैं कि ईश्वरेच्छा बलीयसी। सृष्टि की रचना करने के पीछे ईश्वर की इच्छा ही बलवान तत्त्व है । अच्छा, आपने इच्छा तत्त्व मान लिया तो अब आप यह बताइये कि ईश्वर बड़ा कि इच्छा? आप कहेंगे ऐसा भी क्या प्रश्न खड़ा हो सकता है ? ऐसा प्रश्न करना भी प्रश्नकर्ता की मुर्खता है । अच्छा भाई, मैंने मेरी मूर्खता भी मान ली, परन्तु उत्तर तो दीजिए । चूंकि आप ईश्वर को इच्छा के अधीन बता रहे तो फिर ईश्वर बड़ा हुआ कि इच्छा? क्या ईश्वर इच्छा के अधीन है या इच्छा के अधीन ईश्वर है? यदि ईश्वर इच्छा के अधीन होकर सृष्टि की रचना करता है और उसी तरह कुम्हार-कुलालादि इच्छा द्वारा प्रेरित होकर इच्छा के अधीन होकर ही घट–पट बनाता है तो मनुष्य ऐसे कुम्हार और ईश्वर में क्या अन्तर रहा? दोनों में क्या भेद रहा? दोनों ही इच्छा के धरातल पर समान गिने जायेंगे। तो फिर मनुष्य को तो इच्छा के बन्धन से मुक्त होने के लिए, इच्छा को सीमित करने के लिए, इच्छा पर विजय पाने के लिए उपदेश दिया जाता है और ईश्वर के लिए किसी उपदेश की आवश्यकता नहीं है, क्यों? क्या इच्छा अच्छी है ? इच्छा क्या है ? इच्छा किसे कहते हैं ? इस विषय में उमास्वाति वाचकमुख्य पूर्वधर महापुरुष प्रशमरति में कहते हैं
संसार की विचित्रता के कारण की शोध
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