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________________ सिद्ध होगा। तो यह प्रत्यक्ष विरुद्ध सिद्ध होगा। मुत्यु के समय “जीव गया”, “जीव जा रहा है", "जीव जानेवाला है" ऐसा व्यवहार करते हैं। शरीर गया, या शरीर जा रहा है ऐसा व्यवहार कोई नहीं करते हैं । जीवात्मा इस देह को छोड़कर जाती है फिर नश्वर देह तो जला देते हैं । देह उत्पन्न हुआ था इसलिए नष्ट हो गया। आत्मा अनुत्पन्न थी इसलिए नष्ट नहीं हुई। अतः अनादि अनन्त का स्वरूप सही रहा । तो ही इसके आधार पर आगे स्वर्ग-नरक, लोक-परलोक, पूर्व जन्म-पुनर्जन्म की सिद्धि होगी और उपरोक्त बात न स्वीकार करें तो ये लोक-परलोकादि भी सब व्यर्थ सिद्ध हो जायेंगे। और व्यर्थ सिद्ध हो जायेंगे तो तीन लोक की अनन्त ब्रह्माण्ड की ईश्वर की सृष्टि असिद्ध सिद्ध होगी। दूसरी बात यह भी है कि आकाशद्रव्य को जिस तरह नित्य शाश्वत माना गया है। अतः उसकी उत्पत्ति नहीं मानी गई है तो आत्मा भी शाश्वत द्रव्य है, उसकी उत्पत्ति मानने का कोई कारण नहीं रहता है । नैयायिक आत्मा, आकाश, काल, दिशा, मनादि नित्य द्रव्यों को अनुत्पन्न मानते हैं । अब सोचिए कि यदि ये नित्य पदार्थ पहले से ही थे, अनादि नित्य हैं तो फिर ईश्वर ने बनाया क्या? ईश्वर के पहले भी यदि सृष्टि थी तो फिर ईश्वर को सृष्टि का कर्ता कहें कैसे?आदयपुरुष कहें कैसे? उसी तरह ईश्वर ने कुम्हार की तरह यह सृष्टि बनाई है ऐसा वेद में कहकर ईश्वर को सबसे बडा महान कुम्भकार-कुलाल के रूप में ईश्वर की स्तुति करते हुए कहा है कि- “नमः कुम्भकारेभ्य कुलालेभ्यश्च" उस महान कुम्हार रूप एवं कुलालरूप (वणकर) ईश्वर को नमस्कार हो जिसने इस सारी सृष्टि की रचना की है। कुम्हार घडे बनाता है । कैसे बनाता है ? मिट्टी-पानी लेकर मिश्रित करके पिण्ड बनाकर चाक के ऊपर दण्ड से घुमाकर घडे बनाता है। यह सर्वसिद्ध प्रत्यक्ष बात है कि कुम्हार मिट्टी आदि से घडे बनाता है । प्रश्न यह है कि कुम्हार घडे बनाता है कि मिट्टी-पानी बनाता है ? जी नहीं, मिट्टी-पानी का बनानेवाला कर्ता कुम्हार नहीं है । वह तो सिर्फ घडे का कर्ता है । मिट्टी-पानी जो पहले से विद्यमान पदार्थ थे उनको लेकर कुम्हार ने उनके द्वारा घडे बनाए हैं। अतः सबसे बड़ा सृष्टि का रचयिता जिसको वेद में कुम्हारादि कहा गया है उसने यह सृष्टि कैसे बनाई ? कुम्हार की तरह ही बनाई । तो मतलब यह हुआ कि बनानेयोग्य पदार्थ, घटक-पदार्थ पहले से ही थे, केवल ईश्वर उनका संयोजन करनेवाला संयोजक ही रहा । जैसा कि नैयायिक कहते हैं कि-परमाणु तो थे ही । परन्तु परमाणुओं को जोड़ने का, संयोजन करने का कार्य ईश्वरेच्छा से हुआ । परमाणुओं के मिश्रण से जिस तरह व्यणुक, त्र्यणुक, चतुर्युक आदि बनते गए और इस तरह महा स्कंध बने । इस तरह १३२ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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