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आदि के रूप में ही नहीं है। अतः जैन दर्शन जो एक स्वतंत्र धारा है उसने ईश्वर को आत्मगुणैश्वर्यसंपन्न, परम शुद्ध पद प्राप्त परमेश्वर स्वरूप में स्वीकारा है । जगत् कर्तृत्ववादी मान्यतावाला जरूर नहीं है । चूंकि माया, अविद्या या प्रकृति के हाथ में अन्य दार्शनिकों ने जैसे कर्तृत्वशक्ति प्रदान की है उसी तरह जैन दर्शन ने कर्म के हाथ में कर्तृत्वशक्ति प्रदान की है और कर्म को तथा कर्म फल की लगाम ईश्वर के हाथों में न पकडाकर जीव के ही हाथ में रखी है । कर्तृत्ववादी दर्शनों ने ईश्वर का स्वरूप जितना विकृत किया है जैन दर्शन ने उतना ही विशुद्ध बताया है । अतः जगत्कर्तृत्ववाद के एक अंश के अर्थ में जैन दर्शन अनीश्वरवादी या निरीश्वरवादी कहा भी जाता हो तो भी अन्य अर्थ में जैन दर्शन को विशुद्धेश्वरवादी कहना जादा सुसंगत सिद्ध होता है। अतः जैन दर्शन को नास्तिक कहना भी सुसंगत नहीं है, युक्तिसंगत भी नहीं है, एवं प्रत्यक्ष विरुद्ध है । चूंकि लाखों मंदिर हैं, लाखों प्रतिमाएँ हैं । प्रतिदिन पूजा-पाठ करनेवाले जैन को नास्तिक कहना सूर्य को काला कहने जैसी बात है। सुष्टिकर्तृत्ववाद की समालोचना
. जैसा कि हम ऊपर देख चुके हैं उस ईश्वर को सृष्टिकर्ता के रूप मे मानना कहाँ तक न्यायसंगत है ? यह समीक्षा भी यहाँ अवकाश माँगती है । तर्क-युक्ति पर इसका आधार है। ईश्वर में जो बातें नहीं हैं वह यदि हम हमारी तरफ से आरोपित करके ईश्वर का स्वरूप हमारी अपनी दृष्टि के अनुरूप बनाएंगे तो निश्चित ही ईश्वर का स्वरूप विकृत हो जाएगा। शायद मानव.ने ही अपने स्वार्थवश ईश्वर का स्वरूप विकृत किया है। हमारे पूर्वज न्यायविशारद, तर्कवादी, युक्ति साम्राज्यवाले, कई आचार्य, भगवंतों ने ईश्वरवाद के ऊपर समीक्षा की है । काफी परामर्श इस विषय पर किया है, जिनमें सिद्धसेन, दिवाकर सूरि, हरिभद्रसूरि, वादिदेव सूरि, हेमचन्द्राचार्य, महोपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराज, विद्यानंदी आदि धुरंधर विद्वानों ने तर्क-युक्तिपूर्वक ईश्वरवाद की समालोचना की है । इस विषय के अनेक अकाट्य ग्रन्थों की रचना की है । स्याद्वाद रत्नाकर, प्रमाणनय तत्त्वालोक, सर्वज्ञ सिद्धि, सन्मति तर्क प्रकरण, स्याद्वाद मञ्जरी, शास्त्रवार्ता समुच्चय, स्याद्वाद कल्प-लता टीका, न्यायखण्डन खाद्य, आप्त परीक्षा आदि अद्भुत अनुपम युक्ति सभर ग्रन्थ अवश्य दर्शनीय हैं। विचारणीय हैं । यहाँ प्रस्तुत विषय में हेमचन्द्राचार्य विरचित अन्ययोगव्यवच्छेद द्वात्रिंशिका ग्रन्थ की पू. मल्लिषेण सूरिविरचित टीका स्याद्वादमञ्जरी के एक श्लोक को लेकर थोड़ी उपयोगी विचारणा करें
कर्तास्ति कचिज्जगतः स चैकः स सर्वगः स स्ववशः स नित्यः । इमा कुहेवाकविडम्बनाः स्युस्तेषां न येषामनुशासकस्त्वम् ।।
संसार की विचित्रता के कारण की शोध
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