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________________ शब्द है । अतः राग द्वेष ये कर्मजन्य मानवी स्वभाव हैं जिसमें इच्छा अनिच्छा का प्रश्न आता है । परन्तु परमेश्वर परमात्मा इस इच्छा तत्त्व से (रागादि भावों से) मुक्त है । अतः वह जगत को स्वइच्छावश फल देने वाला नहीं रहता। ईश्वरवादियों ने इच्छा का बल ईश्वर के हाथ में दे दिया है । इसलिए उसे ही जगत के सभी जीवों के कार्य-क्रिया का केन्द्र माना गया है । अतः ईश्वर की इच्छा के बिना वृक्ष का पत्ता भी नहीं हिल सकता। जैन धर्म ने निरीश्वरवादी धर्म होते हए कर्म एवं कर्मफल, सृष्टि-संसार रचना, एवं जगत व्यवस्था आदि सभी ईश्वरवादी प्रश्नों को सुलझाया है। सभी का उत्तर है। सृष्टि आदि का सुव्यवस्थित उत्तर देते हैं। इतना ही नहीं जड कर्मों के हाथ में कर्म फल की सत्ता का कार्य है। अतः ईश्वर का स्वरूप विकृत न करते हुए परम विशुद्ध बताया है । उसकी उपासना सर्वकर्मक्षय हेतु के उद्देश्य से मोक्ष प्राप्ति के फल की प्राप्ति से करने की विशुद्ध साधना पद्धति बनाई है । कर्म फल दाता के रूप में ईश्वर को जीवों के कृत-कर्म के विपाक स्वरूप दुःख सजादि का कारण क्यों माने? क्यों ईश्वर को मानवी के सुख-दुःख का कारण माने? कर्म फल के रूप में ईश्वर को बीच में गिरा कर ईश्वर के हाथ गन्दे करना या विशुद्ध ईश्वर के स्वरूप को विकृत करना जैन धर्म ने उचित नहीं समझा । सर्व प्रकार की विकृतियों को दूर हटाकर ईश्वर के स्वरूप को जितना हो सका उतना शुद्ध-विशुद्ध रखा । अतः ईश्वर को सर्वदोषरहित, कर्ममुक्त, क्लेश-कषाय-कल्मष-कर्मरहित माना, विजेता के रूप में जिन, जिनेन्द्र, जिनेश्वर माना है । मोक्षमार्ग उपदेशक के रूप में तीर्थंकर अरिहंत माना है। इतना ही नहीं, निरीश्वरवादी जैन दर्शन भी ईश्वर शब्द का प्रयोग करते हैं, किसी विशेषण के साथ ईश्वरशब्द का प्रयोग करते हैं- उदाहरणार्थ परम + ईश्वर = परमेश्वर, जिन + ईश्वर = जिनेश्वर इत्यादि शब्द प्रयोग में प्रतिदिन लाते हैं । परन्तु इसमें सृष्टिकर्ता के अर्थ की ध्वनि नहीं है । परम का अर्थ है जो पामर नहीं है, परम उच्च, परम विशुद्ध पद पर विराजमान है परमेश्वर ! जिन राग-द्वेषादि को सर्वथा जीत लेनेवाले ईश्वर ! हे जिनेश्वर ! के नाम से संबोधित करते हैं । न केवल ईश्वर अर्थात् स्वामी या मालिक के अर्थ में नहीं। चूंकि जैन ईश्वर को जगत् का पिता, नियंता, नियामक आदि नहीं मानते हैं। ____अतः निरीश्वरवादी का सिर्फ इतना ही अर्थ स्पष्ट होता है जो ईश्वर को सृष्टिकर्ता, हर्ता, धर्ता, धाता-विधाता के रूप में नहीं मानता है । सिर्फ अर्थभेद है । अतः ईश्वरविषयक मान्यता जरूर है, भले ही कर्ता के रूप में न मानकर अर्थभेद से अन्यार्थ में माना है । चूंकि अनिवार्य नहीं है कि ईश्वर को सभी सृष्टिकर्ता के रूप में ही माने? व्याकरण आदि की दृष्टि से या व्युत्पत्ति आदि की दृष्टि से भी ईश्वर शब्द की व्युत्पत्ति सृष्टिकर्ता, हंता या नियंता १२८ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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