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________________ समानधर्मा समानान्तर नहीं है । ईश्वर को त्रिकालज्ञ मानते हैं । वही स्रष्टा है । कुरआन में कहा है कि ईश्वर की वाणी को पैगम्बर के द्वारा ही सुना जा सकता है । अतः पैगम्बर पुनः पुनः होते हैं । अल्लाह एक है। ईश्वर सर्वशक्तिमान, सब कुछ दृष्टा है । इस्लाम में भी ईश्वरेच्छा ही बलवान कही गई है। वह अपनी मर्जी से सब कुछ कर सकता है। वही रहमतगार, बंदापरवर है । रोटी देनेवाला है, सब कुछ देनेवाला है। वह अदृश्य है। इस तरह कुरआन धर्मग्रन्थ है, जो ईश्वर का स्वरूप प्रतिपादित करता है। ये जगत के प्रमुख धर्म व दर्शन हुए। इसी तरह और भी हैं । यहूदी धर्म, ताओ धर्म, शितो धर्म, कन्फ्युशीयस धर्म, आदि अनेक हैं । इन सब में प्रायः सृष्टिकर्ता के रूप में ईश्वर का अस्तित्व स्वीकारा गया है । और साम्यता अनेक प्रकार की मिलती है । ईश्वर को एक मालिक-स्वामी के रूप में देखा गया है । उसकी इच्छा पर ही सारा आधार रखा गया है। प्रायः ईश्वरवादी मान्यतावाले विचार कई अंशों में परस्पर मिलते-जुलते हैं। बात का स्वरूप भिन्न होते हुए भी हेतु मिलता-जुलता है। ईश्वरवाद एवं निरीश्वरवाद __ ईश्वरवाद से सिर्फ ईश्वर के अस्तित्व को ही मानना ऐसी बात नहीं है अपितु सृष्टिकर्ता के रूप में, जगत् कर्तृत्व के रूप में ईश्वर को स्वीकारना ईश्वरवादी का प्रमुख अर्थ है । इसलिए हिन्दु, सिख, न्याय, वैशेषिक मतवादी, इस्लाम और ईसाई आदि प्रमुख धर्म ईश्वर को सृष्टिकर्ता के रूप में स्वीकार करते हैं । ईश्वरवाद का ठीक विपरीत शब्द निरीश्वरवाद जब आता है तब इसका ऐसा विपरीत अर्थ नहीं है कि निरीश्वरवादी धर्म ईश्वर सत्ता को मानते ही नहीं है। ऐसी बात नहीं है । अर्थ का विचार करने से पता चलता है कि निरीश्वरवादी धर्म सिर्फ जगत्कर्ता, सृष्टि के स्रष्टा के रूप में ईश्वर को नहीं स्वीकारते । अतः वे निरीश्वरवादी या अनीश्वरवादी कहलाए । परन्तु अनीश्वरवादी ने भी परमात्मा स्वरूप को आत्मगुणैश्वर्यसम्पन्न पूर्ण शुद्ध-सर्वज्ञ वीतराग स्वरूप में मानकर उपासना अवश्य की है। उदाहरणार्थ जैन धर्म, मीमांसक, तथा सांख्य और योग दर्शन ये प्रमुख रूप से निरीश्वरवादी जरूर हैं अर्थात् सृष्टिकर्ता के रूप में, संसार के निर्माता या नियन्ता या संहारक के रूप में या इच्छा के केन्द्र के रूप में ईश्वर को नहीं स्वीकारते हैं । परन्तु बौद्ध धर्म में तथागत बुद्ध को बोधिज्ञान संपन्न महापुरुष भगवान माना गया है । जैन धर्म में आत्मा ही जो परमात्मा बनती है वही सर्वज्ञ-सर्वदर्शी, वीतरागी, अरिहंत, तीर्थंकर, सर्वकर्मरहित, सर्वदोषमुक्त, सर्व विशुद्धावस्था में विराजमान सिद्ध-बुद्ध-मुक्त को परमेश्वर माना गया है । हाँ, वह वीतराग होने से इच्छा तत्त्व से रहित है । चूंकि इच्छा भी राग का ही पर्यायवाची संसार की विचित्रता के कारण की शोध १२७
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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