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प्रकार है । तरीका है । पूज्य पूजनीय क्यों है ? क्योंकि पूजा करने योग्य उनका ऊँचा स्थान
। गुणों के भण्डार हैं । सर्वदोषरहित हैं । सर्वगुणसम्पन्न हैं । साधक निर्गुणी है । दोषग्रस्त । साध्य जब सर्वगुणसम्पन्न हो और साधक सर्वदोषसम्पन्न हो तो ही पूजा की उपयोगिता सिद्ध होगी । पूज्य की पूजा करना अंतस्थ सद्भावों को, सन्मान को व्यक्त करने का प्रकार है। सही तरीका है । वही भक्ति है । भक्ति भगवान से जुड़ी हुई है । जिसका कर्ता भक्त स्वयं है । भक्ति में वह शक्ति है जो भगवान की भगवत्ता को खींचकर लाने का चुंबकीय कार्य करती है । अतः भक्ति यह भक्त और भगवान के बीच की कड़ी है । जैसे पति-पि के बीच प्रेम की एक कड़ी है, माँ और बेटे के बीच स्नेह - वात्सल्य की जो कड़ी है वही दो के भेद को मिटाकर अभेद की ओर ले जाती है । उसी तरह भक्त और भगवान के बीच के भेद को काटनेवाली भक्ति वह कड़ी है, जो भेद को मिटाकर अभेद भाव की कक्षा में ले जाकर एकाकार बना देती है । भक्त भगवान बन जाता है । अतः भक्ति में गुणाकर्षण की चुंबकीय शक्ति है ।
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ईश्वर जो आत्मगुणों के सर्व सम्पूर्ण वैभव - ऐश्वर्यों से सम्पन्न है वही हमारी भक्ति का केन्द्र है । भक्ति उसे पाने का सरलतम माध्यम है । जिसमें गुणोत्कर्ष का स्थान है, उसके गुणों का गुणाकर्षण करने की चुंबकीय शक्ति भक्ति में है। भक्त भगवान से प्रार्थना करता है कि
गुण अनन्ता सदा तुझ खजाने भर्या । एक गुण देत मुझ शुं विमाशो ॥
भक्त भक्ति के माध्यम से भगवान और अपने बीच का भेद - अन्तर कम करता हुआ समीप में जाकर गुणयाचना करता हुआ कहता है- हे प्रभु! आप तो सदा ही अनन्त गुणों से भरे हुए हो, गुणों के भण्डार हो, अतः मुझे भी एक गुण दे दीजिए। एक गुण देने में आपके गुण भण्डार में कौनसी कमी आ जाएगी ? परमात्म स्वरूप ईश्वर को गुणैश्वर्यसम्पन्न कहा । अतः ईश्वरोपासना भक्ति के माध्यम की जाती है।
ईश्वर को पहचानना जरूरी है
एक पत्नी से उसके पति की पहचान पूछी जाय और पत्नी उत्तर में कहे कि वे कैसे हैं, वे कोन हैं इत्यादि मैं नहीं जानती । “पति देवो भव" की भावना से पत्नी पति के प्रति समर्पित है और इस तरह अपना संसार चलाती हुई २५ - ५० वर्षों का काल बिता चुकी है । ५० वर्ष की लम्बी अवधि तक पति के साथ रहकर, पति की सेवा भक्ति करती हुई पत्नी ऐसा जवाब दे यह संभव नहीं लगता । वह अपने पति को अच्छी तरह जानती है ।
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आध्यात्मिक विकास यात्रा