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अध्यात्मवादी आस्तिक ईश्वरोपासना को आलंबन के रूप में अपने केन्द्र में रखेगा। ईश्वर तत्त्व हमारे लिए एक ऊँचा आदर्श है । सर्वोच्च आदर्श है । चूंकि हम अपूर्ण हैं । ईश्वर पूर्ण तत्त्व है । अपूर्ण को पूर्ण की उपासना करनी है । हम अल्पज्ञ हैं, ईश्वर सर्वज्ञ है । अल्पज्ञ को सर्वज्ञ की साधना करनी है और अल्पज्ञता हटाकर सर्वज्ञता प्राप्त करनी है । अपूर्णता हटाकर पूर्णता प्राप्त करनी है । इसी तरह ईश्वर में एक नहीं अनेक गुण हैं । परन्तु हमारे में एक नहीं अनेक दुर्गुण भरे पड़े हैं । इन दुर्गुणों के कारण हम दुष्ट-दुर्जन कहे जाते हैं, गिने जाते हैं । अतः दोषों को निकालने के लिए निर्दोष का सहारा लेना, दोषरहित ऊँचे आदर्श का आलंबन लेना अनिवार्य है। साध्य है निर्दोषता । परन्तु साधना के केंद्र में निर्दोष आलंबन किसी का लेना पड़ेगा । वह कौन और कैसा हो सकता है ? क्या हमारे जैसा ही दूसरा कोई भी हमारा आलंबन बन सकता है ? नहीं। निर्दोषता के साध्य की साधना में सदोषी को आलंबन बनाने में साधना का परिणाम विपरीत आएगा। रागी को आलंबन बनाकर की जानेवाली साधना हमें वीतरागी नहीं बनाएगी। रागी तो हम है ही, अतः वीतरागता प्राप्त करने का साध्य बनाएं । वीतरागता की साधना के लिए वीतराग का ही आदर्श ऊँचा आलंबन समझा जाएगा । अतः जो सर्वज्ञ हों, निर्दोष-दोषरहित हों, पूर्णतत्त्व हों, वीतराग हों ऐसे अनेक गुणों से परिपूर्ण-तत्त्व चाहे ईश्वर नाम वाच्य हो, वही हमारी उपासना का केन्द्र हो सकता है । उपासना के तरीके भिन्न हो सकते हैं । परन्तु उपास्य का स्वरूप भिन्न भिन्न स्वरूप का चित्र-विचित्र कर देंगे तो साधना का फल भी चित्र-विचित्र हो जाएगा। साधक साधना के जरिए साध्य को प्राप्त नहीं कर पाएगा तो उसकी साधना व्यर्थ चली जाएगी। गुणोपासना का आधार- ईश्वर - गुणप्राप्ति निर्गुणी की साधना का साध्य है । अतः सर्वगुणसम्पन्न तत्त्व ईश्वर परमात्म स्वरूप में, परम शुद्ध स्वरूप में, परमपुरुष–पुरुषोत्तम, सर्वोच्च स्वरूप में हमारा सहायक उच्च आदर्शभूत आलंबन है । आलंबन लिए बिना निःसहाय चल नहीं सकता। बालक को चलाने में हमें अंगुली पकड़ाकर चलाने का साथ देना पड़ता है । अज्ञानी साधक आज बाल्यावस्था में है । अतः बिना आलंबन के हम आगे बढें यह नामुमकिन है । उसी तरह आलंबन यदि ऊँचे आदर्श का लिया ही है तो उसे पूरा मान-सम्मान देना यह साधक का कर्तव्य होता है। पूज्य-पूजनीय के प्रति पूजा यह उनकी पूजनीयता का सम्मान है। अपमान पूजा भाव को गिराएगा। विकास पथ की साधना में यह सहायक नहीं बाधक बनेगा। अतः पूजनीय के प्रति पूज्यभाव को व्यक्त करनेवाली पूजा पद्धति उपासना का
संसार की विचित्रता के कारण की शोध
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