SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 179
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भी पाप छोड़ना सीखना अनिवार्य है। किसी विशेष प्रकार का पाप मैं नहीं करूँगा ऐसी प्रतिज्ञा करना यह बड़ा धर्म है । मैं हिंसा नहीं करूँगा, झठ नहीं बोलँगा, चोरी नहीं करूँगा, दुराचार, बलात्कार, व्यभिचारादि नहीं करूँगा ऐसी सर्वथा प्रतिज्ञा करना या आंशिक प्रतिज्ञा करना यह बड़ा धर्म है । इसीलिए वीतराग भगवान का धर्म विरतिप्रधान है । विरति दो प्रकार की है- (१) देशविरति । अर्थात् अल्प प्रमाणं में पाप न करने के नियम । यह गृहस्थी के लिए उपयोगी धर्म है । गृहस्थ जीवन की मर्यादा को ध्यान में रखते हुए इस देशविरति धर्म के यम-नियम हैं । अतः इस देशविरति धर्म का उपासक श्रावक कहलाता है। दूसरा (२) सर्वविरति धर्म है । जिसमें छूट नहीं है । हिंसा-झूठ-चोरी, मैथुन सेवन एवं परिग्रह आदि के पाप सर्वथा आजीवन न करने की महाभीष्म प्रतिज्ञा ही सर्वविरति धर्म है । यह साध धर्म है । जो ऐसे महाव्रत धारण करता है वह साधु कहलाता है । अतः वीतराग के धर्म में पापत्याग को प्राथमिकता दी गई है । पापत्याग करनेवाला ही महान् है। कौन कितने प्रमाण में किन-किन पापों का त्याग करता है वह उतने प्रमाण में धर्मी है। दूसरी तरफ जो पंचाचारादि धर्मोपासना है वह भी धर्म है । एक विधेयात्मक है, दूसरा निषेधात्मक है। दोनों का ही यथायोग्य पालन करना चाहिए । आज लोग विधेयात्मक धर्म में दर्शन-पूजा-सामायिक-माला जाप आदि कर लेते हैं। करने का नियम भी लेते हैं परन्तु अधर्म-पाप त्याग की प्रतिज्ञा की बात करो तो तैयार नहीं होते हैं । परिणाम यह आता है कि धर्म भी करते हैं और पाप भी करते जाते हैं। इसीलिए धर्म की कीमत भी घटती है । लोग धर्मी की निंदा भी करते हैं । निंदा धर्म की नहीं होती है परन्तु धर्म करते हुए पाप प्रवृत्ति कम नहीं होती है उसकी होती है। अतः धर्म करनेवाले धर्मी की यह जिम्मेदारी है कि वह धर्म करने के साथ-साथ पाप भी जीवन में से कम करता जाय। पाप कम करते करते एक दिन ऐसा भी आ जाएगा कि वह पाप सर्वथा छूट जाय । तभी सोने में सुगंध मिलेगी। इसी तरह पापभीरुता जीवन में बढ़ेगी । पापभीरुता से भवभीरुता बढ़ेगी। इसी तरह आत्मा कल्याण के पथ पर अग्रसर होगी। धर्म और धर्मी दोनों की कीमत बढ़ेगी। अतः पापभीरुता और भवभीरुता यही धर्मी के योग्यता-पात्रता का मापदण्ड है। ईश्वरोपासना धर्म धर्माराधना में ईश्वर की उपासना यह केन्द्र में है । उपासना के केन्द्र में ईश्वर जरूर है। हमारी सारी साधना ईश्वर के इर्द गिर्द है । आत्मा को विकास पथ पर अग्रसर करने के लिए ईश्वर का आलंबन-सहारा लिए बिना आगे बढ़ना असंभव-सा है। अतः ११८ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy