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है । जैसे कोई मरीज बिछाने पर पड़ा हुआ त्रस्त है, चिल्ला रहा है और उसे सूचना दी जाय कि वैद्यराज आ रहे हैं । शायद यह सुनते ही आधी तो मानसिक शांति हो जाती है । वैद्य के दर्शन होते ही मरीज आधा शांत हो जाता है । उसी तरह भव रोग से पीड़ित मेरे जैसे रोगी के लिए हे श्रेयांसनाथ भगवान ! आपके दर्शन भी सान्त्वना देनेवाले हैं। रोगी के लिए वैद्य की तरह आपके दर्शन मेरे लिए लाभदायी हैं । निःश्रेयस = मोक्ष में विलास करनेवाले ऐसे श्री श्रेयांसनाथ भगवान हमारे श्रेय = कल्याण के लिए हों । ऐसी भावना व्यक्त की गई है । अतः जिनेश्वर परमात्मा हमारे भव रोग के महान् चिकित्सक हैं। उन्हीं से हमारा यह भवरोग मिट सकता है। भवभीरू और पापभीरू
संसार में सर्वत्र पात्रता देखी जाती है । एक पिता अपनी कन्या की शादी के लिए भी सामने युवक की पात्रता देखता है । उसी तरह एक पिता अपनी लाखों की कमाई पुत्र को देने के पहले उसकी पात्रता-योग्यता देखता है, उसी तरह धर्म के लिए धर्मी की पात्रता क्या हो सकती है ? धर्म करने के लिए कौनसा जीव योग्य-पात्र कहलाता है ? इसका उत्तर देते हुए महापुरुषों ने भवभीरू और पापभीरू जीव को ही धर्म के लिए योग्य-पात्र ठहराया है। अर्थात् जिसके मनमें भव = संसार के प्रति भय हो ऐसा, भवभीरू धर्मी कहलाने के लिए योग्य पात्र है । अब मेरी भव संख्या बढ़ न जाय इसके लिए जो जागरूक है वह भवभीरू योग्य-पात्र है । मानों कि एक मरीज डाक्टर की दवाई ले रहा है । ज्वर उतारने के लिए डाक्टर ने सूई लगाई । फिर भी यदि ज्वर कम होने की अपेक्षा बढ़ता ही गया। ऐसा ही दो-तीन दिन तक चलता रहा। लेकिन इसके बाद क्या? क्या आप डाक्टर को योग्य कहेंगे? औषधि जो रोग को बढ़ाये उसे औषधि कैसे कहें? अतः वह
औषधि उस रोग के लिए उचित नहीं है । वैसे ही अब मैं जीवन ऐसा जीऊँ कि मेरा भावि संसार न बढे । मेरी भावि भव परम्परा बढ़ न जाय ऐसा भवभीरू जीव ही धर्मक्षेत्र में योग्यताधारक़ गिना जाएगा।
__ भवभीरू बनने के लिए पापभीरू बनना आवश्यक है । पाप से डरनेवाला अर्थात् पाप हो न जाय, किसी क्रिया में पाप कर्म न लग जाय इसका कदम-कदम ध्यान रखनेवाला ही पापभीरू कहलाता है। कायर और कमजोर यदि कहीं होना भी है तो पाप के सामने कमजोर होना ही अच्छा है । आज धर्मी अनेक हैं । धर्म करनेवाले अनेक हैं । परन्तु पाप न करनेवाले, पाप न करने की प्रतिज्ञा करनेवाले बहुत कम हैं। अतः धर्म करने के लिए
संसार की विचित्रता के कारण की शोध
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