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________________ वात-पित्त-कफ की विषमता, या कीटाणु आदि के कारणभूत रहते हैं उसी तरह आत्मा के इस भव के पीछे “कर्म" ही कीटाणु के रूप में है। कर्म ही एक मात्र कारण के रूप में वैद्य, हकीम या डाक्टर जिस तरह शरीर की जाँच करके रोग के कारण का पता लगाते हैं और चिकित्सा करके ठीक भी करते हैं उसी तरह देवाधिदेव सर्वज्ञ भगवान और गुरू भी हमारे भव रोग के ज्ञाता हैं । जानकार हैं । उन्हों ने पाप कर्म को हमारे रोग का कारण बताया है । यही सही निदान है। उसकी चिकित्सा के रूप में तप-त्याग रूप धर्म की उपासना बताई है । अपथ्य सेवन करने के रूप में पाप कर्म बांधती है.तो पुनः भव परम्परा बढ़ती ही जाएगी। अतः ज्ञानी गीतार्थ गुरू भगवन्तों ने पाप सेवन को कुपथ्य के रूप में वर्ण्य बताया है। धर्म को चिकित्सा पद्धति के रूप में समझाया है । शारीरिक रोगों से पीड़ित देह रोगी रोग की वेदना को समझकर शीघ्र ही वैद्य-डाक्टर के पास चला जाता है और चिकित्सा प्रारम्भ कर लेता है । परन्तु भवरोगार्त-भव रोग से पीड़ित यह जीव भव रोग को समझ ही नहीं पाता है । पहचान ही नहीं पाता है । आश्चर्य इस बात का है कि स्वयं जीव जिस भव रोग से अनादि-अनन्त काल से पीड़ित है फिर भी उस रोग को ही नहीं समझ पा रहा है, तो फिर बचने की चिकित्सा की बात ही कहाँ से सोचेगा? समझने की बात तो दर रही, परन्तु भव रोग है कि नहीं यह सोचने के लिए भी तैयार नहीं है । इसे चाहे आप अज्ञानता कहो या मोहग्रस्तता कहो या जो भी कुछ कहो, लेकिन यह हकीकतसत्य ही है कि जीव आज दिन तक इस विषय में कोई शोध नहीं कर रहा है । देह रोग को समझकर उससे बचने के लिए चिकित्सा करनेवालों की प्रतिशत संख्या कितनी बड़ी है? शायद ९९% होगी। परन्तु भव रोग से पीड़ित संसार का संसारी जीव इसे समझने के लिए प्रयत्न करनेवाले; इसके कारण की शोध करनेवाले या, चिकित्सा कराने के लिए सज्ज हुए शायद २-५ या १०% भी मिलने मुश्किल है । भव रोग के त्राता प्रभु से प्रार्थना भवरोगार्तजन्तूनामगदंकारदर्शनः । निःश्रेयसश्रीरमणः श्रेयांसः श्रेयसेऽस्तु वः ।। त्रिशष्ठी शलाका पुरुष चरित्र में चौबीसों भगवान की स्तुति करते हुए सकलार्हत् स्रोत में कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य महाराज श्रेयांसनाथ भगवान की इस स्तुति में कहते हैं कि रोगग्रस्त किसी रोगी को वैद्य के आगमन की सूचना मात्र कितना आश्वासन दिलाती ११६ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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