SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 175
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ का संसार देखें तो बड़ी भयंकर विचित्रता सामने आएगी। पहले जन्म में दोनों एक माता-पिता के दो पुत्र सगे भाई थे। बडा भाऊ कमठ और छोटा भाई मरुभूति । माता-पिता ने दोनों की शादी करा दी । कालावधि समाप्त होने पर दोनों स्वर्ग में चले गए। कालक्रम से दोनों भाई बड़े हए । सामान्य निमित्तों के कारण बड़े भाई कमठ को छोटे भाई मरुभूति पर निष्कारण वैमनस्य रहने लगा। वह घर छोड़ कर जंगल में भाग गया । तापस के आश्रम में जाकर संन्यासी बना । परन्तु मन में भाई का वैर लेने की वृत्ति शांत नहीं हो रही थी। वह संन्यासी बनकर आया और गाँव के बाहर धूणी लगाकर तपश्चर्या करके बैठा। मुसाफिर के साथ मरुभूति को बुलाने का संदेश भेजा। भद्रिक परिणामी मरुभूति मिलने गया। ऐसा मौका देखकर बड़े भाई कमठ ने बड़े पत्थर की शिला उठाकर पैरों में झुके भाई के सिर पर जोर से पटककर सिर फोड कर मार डाला। इतने से भी संतोष नहीं हुआ... तब अपनी समस्त तपश्चर्या को होड में लगाकर नियाणा किया कि भावि में जनम-जनम तक इसको मारनेवाला तो मैं ही बनूं । यही हुआ आगे। १० जन्म तक दोनों भाईयों का भव संसार वैर-वैमनस्य का चला । छोटा भाई मरुभूति जो स्वभाव से शांत प्रकृति का था, समता का साधक था, आत्मकल्याण की साधना में लगा हुआ था । ठीक इससे विपरीत प्रकृतिवाला बड़ा भाई कमठ था । वह सभी जन्मों में मारनेवाला ही बना । मारता ही गया। परन्तु याद रखिए मारनेवाले का ही बिगडता है। समता से मरनेवाले का कुछ भी नहीं बिगड़ता । दुर्गति मारनेवाले की होती है । समता से समाधि में मरनेवाले की सद्गति होती है । संसार में मारने की वृत्तिवाले तो लाखों हैं जबकि समता से समाधि में मरनेवाले विरले हैं। मरनेवाला महान है । मारनेवाला अधम है। अन्त में यही हुआ। दस जन्मों तक समता शांति रखनेवाला छोटा भाई मरुभूति दसवें जन्म में भगवान पार्श्वनाथ बनकर मोक्ष में गए । जबकि बड़ा भाई कमठ आज भी संसार की घटमाल में भटक रहा है। न मालम आगे कितने भवों तक भटकता ही रहेगा। सगे भाइयों के बीच ऐसा भयंकर संसार चलता है तो फिर अन्यों में तो कहा ही क्या जाय? जाति वैमनस्य का रूप तो और भी भयंकर है। " एक जज तो एक भिखारी ____बात सगे दो भाई की है । छोटा भाई तो हाईकोर्ट का जज है और बड़ा भाई रस्ते पर भीख मांगता हुआ भिखारी है । योगानुयोग रास्ते में भिखारी हमारे पास आया, कुछ मांगने की दृष्टि से । और उसी समय जज साहब भी वहाँ से पसार रहे थे कि वे भी रुके। ११४ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy