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________________ सके। कुत्ते-बिल्ली कि विचित्रता कुछ और ही है । खाने के हाथ भी नहीं है । बन्दर दो पैरों का खाने के लिए हाथ की तरह उपयोग भी कर लेता है । जलचर प्राणियों के न हाथ न पैर । मछलियाँ अपने पंख से ही तैरती रहती है । पक्षी पंख से उड़ते हैं। किसी के सींग है, तो किसी के एक भी सींग नहीं, तो किसी के बारह सींग पेड की डाली की तरह दिखाई देते हैं । पशु-पक्षियों की प्राणी सृष्टि में कीड़े-मकोड़े तक देखने जाएं तो आश्चर्य का पार नहीं रहेगा । किसी के कान ही नहीं तो किसी के आँख ही नहीं हैं। कोई जीवन भर आँख के बिना ही काम चलाते हैं । इन्द्रियों के भी विकल बिचारे विकलेन्द्रिय जीव किसी कदर जीवन बिता रहे हैं। सभी जीव आहारादि की संज्ञा के पीछे जीवन बिता रहे हैं । मानों बहते पानी की तरह सभी का जीवन बीतता जा रहा है। फिर भी दुःख से मुक्ति कहाँ है? अगले जन्म में वहीं परम्परा चलती रहती है। न तो भवचक्र का अन्त है और न ही जन्म-मरण के चक्र का अन्त है, और न ही संसार का अन्त । न ही भव-भ्रमण का अन्त है। किसी के लिए तो हम कहते हैं— “वन्स मोर प्लीज” फिर से दुबारा गाइए । दुबारा बोलिए। आप तो दो घंटे से भी ज्यादा बोलते ही रहिए। और किसी के लिए “गधा कहीं का ! बड बड करता ही रहता है, बैठता भी नहीं है।" किसी का मधुर सुस्वर मीठा कंठ पसंद आता है, मुग्ध कर लेता है, तो किसी का स्वर भैसासूर गर्दभराज का फटा हुआ गला सुनने को जी नहीं चाहता । कोई कोयल जैसा तो कोई कौए जैसा । कौए और कोयल में भी क्या अन्तर है ? समान दिखनेवाले भी आसमान-जमीन का अन्तर रखते हैं । कोयल अपने वर्ण से नहीं परन्तु कंठ से सभी को प्रिय है । जबकि कौआ किसी भी रूप में किसी को प्रिय नहीं है। सभी को अप्रिय है। संसार में प्रियाप्रिय की विचित्रता बड़ी लम्बी चौडी . इस प्रकार का संसार देखने से सेंकड़ों प्रकार की विचित्रता, विविधता और विषमता दिखाई देती है । इसका कारण क्या हो सकता है ? दो भाई के बीच वैषम्य एक माँ के दो पुत्र या चार पुत्र भी परस्पर समान स्वभाववाले नहीं होते हैं । समान प्रेम भी नहीं होता। भाई भी दुश्मन बन जाते हैं । एक दिन एक थाली में इकट्ठे भोजन करनेवाले दो भाई एक दिन एक दूसरे के दुश्मन बन जाते हैं। एक दूसरे की आँखों के सामने देखने के लिए भी तैयार नहीं हैं । ऐसे दृष्टांत को देखने जाए तो संसार में लाखों हैं । औरों की तो बात ठीक ! परन्तु हमारे परम उपकारी भगवान पार्श्वनाथ का ही दस भवों संसार की विचित्रता के कारण की शोध ११३
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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