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अध्याय ३
संसार की विचित्रता के कारण की शोध
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परम पूजनीय जगत् वंदनीय परमपिता परमात्मा श्री महावीरस्वामी भगवान के चरणारविंद में नमस्कारपूर्वक.....
एवं अणोरपारे संसारे सायरम्मि भीमंमि।
पत्तो अणंतखूत्तो जीवेहिं अपत्त धम्मेहिं ।। बड़ी मुश्किल से भी जिसका पार न पा सकें ऐसे भयंकर संसाररूपी समुद्र में धर्म को न प्राप्त किया हुआ जीव अनन्त की गहराई में गिरा है । यह संसार एक भयंकर महासागर के जैसा है। जिसमें सतत सुख-दुःख की लहरें चलती हैं, जो ज्वार-भाटे के रूप में आती है-जाती है । थोड़ी देर सुख तो थोड़ी देर दुःख । इस तरह यह संसार सुख-दुःख से भरा पड़ा है। संसार की तरफ जब दृष्टिपात करते हैं तब अनन्त जीवों का स्वरूप सामने दिखाई देता है । संसार क्या है ? संसार किसी वस्तु का नाम नहीं है । किसी पदार्थ विशेष को भी संसार नहीं कहते हैं । परन्तु जड़-चेतन का यह संसार है । चेतन जीव का जड़ के साथ जो संयोग-वियोग है वही संसार है । जीवों का सुखी-दुःखी होना ही संसार है । शुभाशुभ कर्म उपार्जन करना और उसके विपाक स्वरूप सुख-दुःख भोगना ही संसार है । जन्म-मरण का.सतत चक्र चलता रहे उसे संसार कहते हैं।
अनादि-अनन्त संसार
यह संसार काल की दृष्टि से अनादि-अनन्त है। जिसकी आदि कभी भी नहीं होती । अनन्त जीवों की आदि नहीं है । अतः संसार भी अनादि है । चूंकि संसार का आधार ही जड़-चेतन दो पदार्थ हैं । और उनका भी संयोग-वियोग ही संसार है । आत्मा यह अनुत्पन्न द्रव्य है जो कि कभी उत्पन्न नहीं होता है । जो कभी बनाया नहीं जाता है। निर्माण नहीं होता। अतः उसका नाश भी नहीं होता । जो उत्पन्न होता है उसी का नाश होता है। जिसका नाश होता है वह उत्पन्न द्रव्य है । अतः इसी पर आधारित संसार भी अनादि काल से विद्यमान है । चूंकि आत्मा अनादि-अनन्त है, आत्मा की भी आदि नहीं है । अतः संसार
संसार की विचित्रता के कारण की शोध
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