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________________ लिए अपने लिए शरीर निर्माण करती है । रचना करती है । अतः शरीर औदारिक वर्गणा का पिण्डमात्र है । अतः देहात्मवादी जो कि देह को ही आत्मा मान लेते हैं वे भ्रम में हैं। इस भ्रान्ति में अज्ञानवश मिथ्या मार्ग पर चढकर विनाश के गर्त में चले जाते हैं । अतः देह ही आत्मा है इस अज्ञान में से मुक्त होने के लिए उपरोक्त वर्णन अवश्य मननीय है। इसी तरह आत्मा मन भी नहीं है । मन से सर्वथा भिन्न-परे-आत्मा है । मन भी जड-पुद्गल–परमाणुओं से निर्मित है। चेतनात्मा ने ही चिन्तन करने विचार करने के लिए मनोवर्गणा के परमाणुओं को ग्रहण करके मन बनाया है । वह भी जड है । आत्मा चेतन है। अतः मन को आत्मा कहना या फिर आत्मा को मन कहना बहुत बडी अज्ञानता–मूर्खता सिद्ध होगी। आत्मा को यथार्थ वास्तविक स्वरूप में जैसी है वैसी ही समझना जानना चाहिए। यद्यपि इसे समझ पाना जान पाना अत्यन्त कठिन है । यह महासागर का मंथन करने जैसा है । परन्तु न जान पाएँ, न समझ पाएँ तो... अपनी अज्ञानता प्रगट न हो जाय... इस भय से अज्ञानता को छिपाने के लिए आत्मा है ही नहीं....आत्मा जैसी किसी चीज का अस्तित्व ही नहीं है ऐसा कहकर आत्मा का सर्वथा निषेध कर देने से अपनी अज्ञानता छिप नहीं जाती है परन्तु अज्ञानता का प्रदर्शन पूरी दुनिया में जाहीर हो जाता है। आज भी आत्मा नहीं है ऐसा कहनेवाले कई हैं। लेकिन वे आत्मघाती हैं । “स्वयं नष्टः परान्नाशयति" संस्कृत की कहावत के आधार पर स्वयं तो नष्ट हो चुके हैं और औरों का भी नाश कर रहे हैं । ये आत्मघाती भी हैं और परघाती भी हैं । उतना ही नहीं आत्मा को न मानकर, आत्मा के अस्तित्व का सर्वथा निषेध करके भी ध्यान करा रहे हैं, सिखा रहे हैं। भला आप ही विचार करिए इसमें क्या तो ध्यान होगा? कैसा ध्यान होगा? वे ऐसे ध्यान में क्या पाएंगे? गोले के बीच में जो केन्द्र है वहीं नहीं है तो बिना केन्द्र के गोला कैसे बनेगा? वैसी ही स्थिति यहाँ भी है । ज्ञान-ध्यान-धर्म साधना-आराधना-मोक्षादि सबके केन्द्र में आत्मा है। उसके अभाव में सब निरर्थक हो जाएंगे। अतः आत्मा का अस्तित्व स्वीकारना अनिवार्य है । इसके बिना आस्तिक बन ही नहीं सकेंगे। इसके बिना उद्धार ही नहीं है । और आत्मा भी जैसी है वैसी ही, यथार्थ-वास्तविक स्वरूप में समझनी जाननी स्वीकारनी चाहिए । ईश्वर की बनाई हुई भी आत्मा नहीं है । अतः सर्वज्ञ प्ररूपित सत्यस्वरूप समझकर आत्मकल्याण साधिए। * * * १०४ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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