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ही आत्मा ज्ञानपूर्ण है । ज्ञान का ही भरा हुआ गोला है । इसे ज्ञानाधिकरणमात्मा - ज्ञान का अधिकरण न कहकर ज्ञानमय ही आत्मा कहा है । यह ज्ञान अनन्त है । अनन्त का सीधा अर्थ है अन्त रहित। जिसका कभी अन्त नहीं होता है वह अनन्त। असीम अमाप-अगाध-अपरिमित ज्ञान को अनन्त ज्ञान कहा है। अनन्त वस्तुविषयक होने से अनन्त । अनन्तकालिक होने से भी अनन्त । अनन्त द्रव्यों की अनन्त पर्याय सूचक होने से भी अनन्त । एक द्रव्य की त्रैकालिक अनन्त पर्याय सूचक होने से भी अनन्त । अनन्त क्षेत्री होने से भी अनन्त । अर्थात् लोक–अलोक की अनन्त सीमा तक के सर्वक्षेत्र का ज्ञापक होने के कारण भी अनन्त । इस तरह अनेक दृष्टि से भी आत्मा में अनन्त ज्ञान कहा गया है। इसी के सूचक शब्द सर्वज्ञान केवलज्ञान–पूर्णज्ञान है। ऐसे ज्ञान वाला सर्वज्ञ केवली-अनन्त ज्ञानी-पूर्णज्ञानी कहलाता है । यह जब कर्मावृत्त हो जाता है तब सीमित है । ज्ञान से आत्मा जगत के सभी भावों को जानती है । अतः आत्मा ज्ञाता है।
२) अनन्त दर्शन- जानना यह ज्ञान का कार्य है तो देखना यह दर्शन का कार्य है । ज्ञान की ही तरह आत्मा का दूसरा मुख्य गुण है दर्शन । यह भी अनन्त होने से अनन्त दर्शन कहा जाता है । इससे आत्मा अनन्त लोकालोक स्वरूप सब कुछ देख सकता है। बिना नेत्रों के भी प्रत्यक्ष दर्शन आत्मा को अनन्त द्रव्यों का, अनन्त पर्यायों का, अनन्त क्षेत्र तक का भी होता है। अतः सर्वदर्शी-सर्वदर्शनी-केवलदर्शी है । ज्ञान के साथ ही यह गुण भी रहता है।
३) अनन्त (यथाख्यात) चारित्र-तीसरा गुण आत्मा का अनन्त चारित्र है । इसी का दूसरा नाम यथाख्यात चारित्र है । स्वरूप रमणता-स्वभाव रमणता को चारित्र कहा है । इससे आत्मा बिना राग-द्वेष का वीतराग वीतद्वेष स्वभाववाला है । राग-द्वेष रहित भाव ही वीतराग भाव है । क्लेश-कषाय-कलह-कंकास-विषय- वासनादि रहित शुद्ध भाव ही चारित्र भाव है। ,
४) अनन्तवीर्य- यहाँ वीर्य शब्द शक्ती अर्थ में हैं । आत्मा में अनन्त शक्ती है । दान-भोगादि की अनन्त शक्ती है । आत्मा समय आने पर संपूर्ण लोक व्यापी भी बन सकती है। अपने असंख्य प्रदेशों को फैलाकर लोकव्यापी बना सकता है । १ समय में सर्वव्यापक बन सकता है । इतनी अनन्त शक्ती का मालिक चेतन आत्मा है।
५) अनामी-अरूपी- आत्मा नाम-रूप से परे अनामी है। इसका कोई नाम नहीं है। रूप-रंग-नहीं है। अतः वर्ण-गंध-रस-स्पर्श से रहित
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आध्यात्मिक विकास यात्रा