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अनन्त
अक्षय |
अनन्त सख
स्थिति /
दर्शन
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आत्मा का गुणात्मक स्वरूप
प्रत्येक द्रव्य-जगत् का गुणात्मक ही है। गुणरहित एक भी द्रव्य नहीं है । अतः जहाँ जहाँ द्रव्य है वहाँ वहाँ गुण अवश्य है और जहाँ जहाँ गुण हैं वहाँ वहाँ द्रव्य अवश्य ही है । इसलिए द्रव्य-गुण के बिना कभी रह ही नहीं सकता है और गुण के बिना द्रव्य कभी भी रह नहीं सकता है। उदाहरण के लिए सूर्य और उसकी किरणें । सूर्य द्रव्य है तो उसकी किरणें प्रकाश उसका गुण है । सूर्य कभी भी
उसकी किरणों (प्रकाश) के बिना नहीं रह सकता है । ठीक वैसे ही किरणें-कभी भी सूर्य के बिना नहीं रह सकती हैं । इसी तरह आत्मा भी एक द्रव्य है और ज्ञान-दर्शनादि उसके गुण हैं । आत्मा कभी भी ज्ञान-दर्शनादि गुणों के बिना नहीं रह सकती है, इसी तरह ज्ञान–दर्शनादि गुण भी आत्मा के बिना कभी भी कहीं भी रह नहीं सकते हैं । अतः द्रव्य की व्याख्या स्पष्ट की गई है कि- "गुणपर्यायवत् द्रव्यम्" गुण और पर्यायवाला जो होता है वह द्रव्य ही होता है। आत्मा के गुण-ज्ञान-दर्शनादि आत्मा में ही रहते हैं । आत्मेतर-जड-पुद्गलादि द्रव्यों में कभी भी नहीं पाए जाते हैं । इसी तरह जड पुद्गल के वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शादि गुण जड में ही पाए जाते हैं वे कभी भी आत्मा में नहीं पाए जाते हैं । परस्पर दोनों के गुणों का संक्रमण नहीं होता है । गुण-द्रव्य की पहचान है।
आत्मा के ८ प्रमुख गण हैं । १) अनन्त ज्ञान, २) अनन्त दर्शन, ३) अनन्त चारित्र, ४) अनन्त वीर्य, ५) अनामी-अरूपी, ६) अगुरुलघु, ७) अनन्त सुख, ८) अक्षय स्थिति ।
१) अनन्त ज्ञान- ज्ञान आत्मा का गुण है । ज्ञानमय ही आत्मा है । अतः ज्ञान के बिना आत्मा की कल्पना भी नहीं की जा सकती और आत्मा के बिना ज्ञान की कल्पना भी नहीं की जा सकती। अत: ज्ञानमयोऽयमात्मा। ज्ञानमय ही आत्मा है । ज्ञान से व्याप्त आत्मा है । जैसे सूर्य प्रकाश का गोला है । तेजस्वी- तेजःपुंज-तेज का पिण्ड है । वैसे
सृष्टिस्वरूपमीमांसा
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