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१) चैतन्य स्वरूप- चेतना शक्ती को कहा है । वह ज्ञान–दर्शनात्मक है । अतः ज्ञानोपयोग तथा दर्शनोपयोगात्मक जो शक्ती है वह चेतना शक्ती है। ऐसी चेतना शक्तीवाला वह चैतन्यस्वरूपी चेतनात्मा है।
२) परिणामी- समय-समय, नई-नई पर्यायों में गमन को परिणमन कहते हैं । ऐसा परिणमनवाला वह परिणामी । आत्मा का ज्ञान जो कर्मग्रस्त है। उसके आधीन समय–समय, घट-पट आदि पदार्थों का ज्ञान बदलता ही रहता है । अतः यह ज्ञानपर्याय हुई । ज्ञानोपयोगवाले आत्मा की ज्ञानपर्यायों का जो परिवर्तन होता है उसी में परिणमन करनेवाली आत्मा भी उस समय घटाकार–पटाकार उपयोगवाली बनती है । अब घटाकार उपयोग गया और पटज्ञान के समय पटाकार ज्ञानोपयोग बना तब पटज्ञानवाली आत्मा बनी। इस तरह ज्ञान की बदलती हुई पर्यायों के साथ-साथ . . आत्मा भी परिणमन स्वभाववाली है । अतः परिणामी है ।
३) कर्ता- यहाँ कर्ता शब्द करनेवाला, करने की क्रियावाला कर्ता अर्थ में कहा गया है । जगत् क्रिया है तो कर्ता अनिवार्य है। कर्ता के बिना क्रिया संभव नहीं है । अतः. क्रिया का कर्ता चेतन द्रव्य सिद्ध होता है । जड में कर्तृत्व शक्ती नहीं है । अतः जड अजीव अक्रिय-निष्क्रिय तत्त्व है। जबकि चेतनात्मा क्रिया करनेवाला कर्ता सक्रिय तत्त्व है। लेकिन प्रश्न खडा होगा कि- किसका कर्ता ? जगत् का कर्ता ? नहीं। पृथ्वी–पहाड–समुद्र आदि समस्त ब्रह्माण्ड का कर्ता चेतन नहीं है । सभी के सुख-दुःखों को देनेवाला कर्मों का फल अन्यों को देनेवाला वैसा कर्ता चेतन नहीं है, लेकिन- स्वकर्म का कर्ता जरूर जीव है । अतः स्पष्ट कहा है कि
. य: कर्ता कर्मभेदानां भोक्ता कर्मफलस्य च ।
संसर्ता परिनिर्वाता स ह्यात्मा नान्यलक्षणः ।। पूज्य हरिभद्रसूरि महाराज ने— “शास्त्रवार्तासमुच्चय” दार्शनिक ग्रन्थ में कहा है कि...जो अपने कर्मों का कर्ता है और किये हुए कर्मों के फल का भोक्ता भी है तथा इस संसार में जन्म-मरण धारण करता हुआ....संसार में संसरण–परिभ्रमण करता ही रहता है वही आत्मा है । संसारी जीवात्मा है।
४) साक्षात् भोक्ता-जो स्वयं शुभ–अशुभ कर्म करता है वही उन किये हुए शुभ-अशुभ कर्मों के फल को भोगता है । शुभ कर्म का फल शुभ-सुखरूप है । तथा अशुभ कर्मों का फल अशुभ-दुःख रूप है । अतः कर्म फल को भोगते समय चेतन
सृष्टिस्वरूपमीमांसा