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परिमित क्षेत्र में रहनेवाला है । (अर्थात् लोक में रहनेवाला द्रव्य है, अलोक में रहनेवाला नहीं है ।) काल से कभी वह नहीं था ऐसा कोई काल ही नहीं था । अर्थात् सर्व काल में रहने वाला वह नित्य-शाश्वत द्रव्य है । शाश्वतता कालसापेक्षिक है । भाव से आत्मा रंग रहित, गंध रस और स्पर्श रहित है । अर्थात् अरूपी (अवर्णी) अगंधी, अरस, अस्पर्शयुक्त है । और गुण की दृष्टि से आत्मा उपयोग गुणवान् है । असंख्य प्रदेशी आत्मा
पंचास्तिकाय में जीवास्तिकाय भी एक अस्तिकाय द्रव्य है । इसे ही संक्षिप्त नाम से “आत्मा” कहते हैं। षड् द्रव्य में जिसकी गिनति की गई है वह चेतन द्रव्य आत्मा है । यह आत्मा एक द्रव्य है । अतः इसका द्रव्य स्वरूप है। चित्र में जैसा दिखाया है। इस काल्पनिक चित्र के आधार पर समझा जा सकता है । जैसे एक वस्त्र-कपडे की बुनाई होती है उसमें एक धागा
सीधा, एक धागा आडा रखा जाता है । वे दोनों धागे एक दूसरे को जहाँ जुडते हैं वह उनका Cross Point कहलाता है । ऐसे पूरे लम्बे कपडे में Cross Point कितने होते हैं ? इसी तरह चेतनात्मा भी असंख्य प्रदेशी द्रव्य है। इसके प्रदेशों की संख्या असंख्य है । चित्रानुसार आत्मा के प्रदेशों की रचना है । अतः पूर्णात्मा असंख्य प्रदेशात्मक पिण्ड है । यह अखण्ड है । खण्डित होकर प्रदेश बिखर नहीं जाते हैं । अतः अखण्डितता बनी रहती है । ऐसा असंख्य प्रदेशी आत्मा स्वतंत्र द्रव्य है।
और ऐसी जगत में अनन्त आत्माएँ हैं। प्रदेश रचना की दृष्टि से सभी अनन्त आत्माएँ ठीक एक जैसी ही हैं । समानता है । लेकिन एक ही नहीं हैं । एक जैसी कहना और एक ही कहना इन दोनों बातों में अनन्त जीवों में एक ही आत्मा माननेवाला अद्वैत वेदान्त दर्शन भी है। परन्तु द्रव्य स्वरूप से वैसा नहीं है। क्योंकि सबकी सुख-दुःख की संवेदना भिन्न-भिन्न प्रकार की है । यदि एक ही मानेंगे तो सब का सुख-दुःख भी एक समान ही मानने की आपत्ति आएगी। जैसा एक को सुख होता है वैसा अनन्त को एक साथ एक
सृष्टिस्वरूपमीमांसा