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का पिण्ड आवश्यक है। उसे ही चेतनात्मा ग्रहण करती है...फिर उस से देह निर्माण करती है . . . फिर आगे देह का विस्तार करती है। इसलिए रज-वीर्य के संयोजन-संमिश्रण से देह की उत्पत्ति संभव है चेतनात्मा की नहीं। लेकिन, चेतनात्माओं को आने का आधारभूत स्थान यह संमिश्रण अनिवार्य है । अतः चेतनात्माएँ इसमें आकर इसे ग्रहण कर देह धारण करती हैं। यही सच्ची प्रक्रिया है। अतः सर्वज्ञ के सिद्धान्तानुसार चेतनात्मा की उत्पत्ति नहीं होती है । किसी भी पदार्थों को घटक द्रव्यरूप मानकर संयोजन या संमिश्रण करके भी आत्मा की उत्पत्ति नहीं की जा सकती है। सच्चे अर्थ में चेतनात्मा कैसी है?___ अब जब चेतनात्मा उत्पन्नशील ही नहीं है। अतः न तो किसी घट द्रव्यों के संयोजन-संमिश्रण से उत्पन्न हो सकती है, न ही किसी भी प्रक्रिया से बन सकती है। और न ही ईश्वर द्वारा निर्मित है । ईश्वर की सृष्टि में आत्मा को उत्पन्न नहीं किया है । अतः आत्मा अनुत्पन्न-अनादि-अविनाशी-शाश्वत-नित्य अनन्तकालस्थायी द्रव्य है। आगम प्रमाण से विचार करने पर चेतनात्मा के बारे में श्री भगवतीसूत्र नामक पंचमांग श्री वियाहपण्णत्ति सूत्र में सर्वज्ञ प्रभु महावीर फरमाते हैं।
(गौतमस्वामी का प्रश्न है— जीवत्थिकाएणं भंते ! कतिवण्णे, कतिगंधे, कतिरसे, कतिफासे?
उत्तर- भ. महावीर- गोयमा ! अवण्णे, अगंधे, अरसे अफासे, जीव अरूवी, जीवे सासए, अवट्ठिए लोगदब्वे से समासओ, पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा–दव्वओ, जाव गुणओ, दव्वओ णं जीवत्थिकाए अणंताई, जीवदव्वाइं, खेत्तओ लोगप्पमाणमेते, कालओ न कयाइ न आसी, जाव-निच्चे भावओ पुण अवण्णे, अगंधे, अरसे, अफासे, गुणओ उवओगगुणे –(भगवती २ रा १०३) ।
गौतमस्वामी गणधर ने प्रश्न पछा कि- हे भगवंत ! जीवास्तिकाय के कितने रंग हैं? कितने गंध हैं ? कितने रस हैं ? कितने स्पर्श हैं ?
श्री वीर प्रभ ने उत्तरं में फरमाया- हे गौतम !- जीवास्तिकाय (आत्मा) बिना रंग का अरूपी है। वह जीव है। शाश्वत है और अवस्थित लोकगत द्रव्य है। संक्षेप से जीवास्तिकाय को ५ प्रकार से कहा है- १) द्रव्य से, २) क्षेत्र से, ३) काल से, ४) भाव से और ५) गुण से । द्रव्य से अनन्त जीवात्माएँ स्वतंत्र चेतन द्रव्य रूप हैं । क्षेत्र से वह लोक
आध्यात्मिक विकास यात्रा