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________________ स्टने हैं । शराब के नशे का परिणाम कितना भयंकर है वह तो सब जानते हैं । कहीं छिपा नहीं है । इस प्रक्रिया की तरह मद शक्ती के जैसे आत्मा भी किसी ऐसे ही पदार्थों के संमिश्रण से बनती है फिर उसमें चेतना शक्ती आती है । ऐसी नास्तिकों की मान्यता मात्र सिर्फ कहने के लिए मदिरा के दृष्टान्त को प्रस्तुत कर दिया गया है परन्तु उत्पत्ति के लिए आधारभूत किसी भी पदार्थ का नाम नहीं बता पाए हैं । ऐसे जगत में कोई भी पदार्थ नहीं है... परमाण भी नहीं है जिनके संमिश्रण से उस बने हुए पदार्थ में चेतना शक्ती का संचार हुआ हो । अतः ऐसी बातें सर्वथा निरर्थक हैं। आधुनिक विज्ञान जिसका कार्यक्षेत्र हमेशा जड ही रहा है । जड-पुद्गल-परमाणुओं के क्षेत्र में ही विज्ञान ने अपनी तरक्की की है । उस आधुनिक विज्ञान में भी ऐसी ही मान्यता है कि चेतना-आत्मा नामक वैसा कोई द्रव्य (वस्तु) है ही नहीं। ये जो जीवादि हैं वे भी किसी प्रकार के संमिश्रण से ही बनते हैं । इनकी उत्पत्ति होती है। उत्पन्नशील हैं। लेकिन आज दिन तक विज्ञान पुरुष के शरीर के एक वीर्य बिन्दु को भी नहीं बना पाया है। और न किसी ऐसे घटक द्रव्यों को ढूँढ पाया है कि जिनसे चेतनात्मा की उत्पत्ति हो। शरीर जरूर जड है। शरीर तो पुद्गल-परमाणुओं का बना हुआ पिण्ड है । जो हम आहारादि ले रहे हैं । उनमें से तत्वों को खींचक आत्मा ही अपने शरीर की रचना करती है। यदि चेतनात्मा ही न हो तो आहार के तत्त्वों को खींचेगा कौन? माँ के गर्भ में भी चेतनात्मा के प्रवेश के बाद ही आहार के परमाणुओं को खींचकर ही चेतनात्मा देह की रचना करता है। यदि ऐसा न मानें तो आहार के तत्त्वों को एक पात्र में इकट्ठे रख दिये जाय तो क्या आत्मा की उत्पत्ति हो जाएगी? जी नहीं। सिर्फ वे परमाणु सडते जाएँगे। लेकिन चेतनात्मा की उत्पत्ति नहीं होगी। यदि रज-वीर्य जैसे घटक द्रव्यों का संमिश्रण करके तथाप्रकार से रखा जाय और जीवात्मा के उपयोगी वैसा वातावरण निर्माण किया जाय तो जरूर उस बने हुए आधार में आकर एक चेतनात्मा रह सकती है । और रहकर उसका आहार के रूप में ग्रहणकर अपने देह की रचना कर सकती है । लेकिन उन रज-वीर्य के संयोग-संमिश्रण से चेतनात्मा की उत्पत्ति नहीं हुई है । उसका तो अस्तित्व पहले से ही था। तभी तो वह आई । यदि अस्तित्व ही नहीं होता तो वह आती कहाँ से? संसार में ऐसी अनन्त आत्माएँ हैं । जो जन्म लेकर एक शरीर में आती है और फिर मृत्यु पाकर उस शरीर को छोड़कर चली जाती है । फिर दूसरे देह को धारण करेगी बस वही उसका जन्म । फिर शरीर की रचना करेगी । उसके लिए उस आत्मा को वैसा रज-वीर्य के संयोग सृष्टिस्वरूपमीमांसा
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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