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________________ द्रव्य हैं । अजीव में ३ तो सहायक द्रव्य हैं- १) धर्मास्तिकाय २) अधर्मास्तिकाय...ये दोनों तो सिर्फ गतिस्थिति सहायक ही हैं । ३) तीसरा आकाश द्रव्य है तो सिर्फ सबका आधार भूत होने से जगह दे देता है । इन तीनों अरूपी द्रव्यों का कार्य अपने गुण का लाभ दूसरों को देने का है । लेकिन लेनेवाले दूसरे भी कोई होने तो चाहिए नहीं तो किसको देंगे? अतः सामने लेनेवालों में मुख्य दो द्रव्य हैं। एक तो जीवात्मा और दूसरा पुद्गल-परमाणु । ये ही गति-स्थिति करनेवाले हैं। आधेयभूत होने के कारण इन दोनों को आकाश ने अवकाश दिया है। इस तरह तीनों अरूपी जड द्रव्यों की भी उपकारिता कम नहीं है । बहुत ही अमूल्य है । इनके बिना जीव–पुद्गल की हालत खराब हो जाय। यदि आकाश ही न हो तो दोनों को जगह-अवकाश ही न मिले। और यदि धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय ही न हो तो ... गति-स्थिति ही न हो । अतः देखिएअजीव होते हुए भी इनका कितना उपकार हमारे ऊपर है ? और दूसरी तरह जीव और पुद्गल उनका उपकार लेकर भी वापिस उन पर उपकार नहीं कर सकते हैं । उन अजीव पर कभी भी किसी भी प्रकार का उपकार कर ही नहीं सकते हैं । और आकाशादि के उपकार को लिए बिना हम रह ही नहीं सकते हैं । आकाश के बिना हम गति-स्थानान्तर कहाँ करेंगे? सर्वथा अरूपी, अक्रिय, अदृश्य होते हुए भी ये तीनों निरंतर उपकार करते हैं। अनादि-अनन्तकालीन इनका उपकार सतत-अविरत होता ही रहता है । इन तीनों अजीव की उपकारधर्मिता पर जीनेवाले आत्मा और पुद्गल-परमाणुओं का सदाकाल अस्तित्व है ही। क्या अजीव से जीव की उत्पत्ति संभव है?- .. प्रत्येक पदार्थ के अपने अपने गुणधर्म हैं । अजीव में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाश तथा पद्गल–परमाणु ये मुख्य द्रव्य हैं। क्या इनसे कभी चेतनात्मा की उत्पत्ति-निर्मिती हो सकती है? क्या संभव है ? तीन द्रव्य तो अरूपी, अदृश्य हैं । इनके तो परमाणु भी नहीं हैं । ये तीनों सर्वव्यापी अखण्ड द्रव्य हैं । अतः इनमें से क्या लेकर, कौन सा अंश लेकर जीवात्मा की उत्पत्ति की जाय? पहली बात- इन के अंश ही नहीं होते हैं अखंडितता ही होती है, खंड होता ही नहीं है। तो फिर अंश लेकर आत्मा की उत्पत्ति कैसे की जा सकती है ? उसी तरह आकाशादि के द्वारा भी संभव नहीं है। उनमें वह स्वभाव ही नहीं है। अगर मानेंगे तो आकाशादि के गुणों का संक्रमण भी जीवात्मा में मानने की आपत्ति आएगी। आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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