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भ्रम में होने से किसी भी एक स्वरूप का निश्चयात्मक ज्ञान नहीं है तो फिर मिथ्या कहने का तात्पर्य क्या? मिथ्या का भ्रम अर्थ करने से... इस सृष्टि को निश्चित रूप से न तो सत्य कह सकते हैं और न ही निश्चित रूप से असत्य कह सकते हैं । दोनों शंकास्पद बने रहेंगे। हो सकता है कि शायद सत्य भी हो या असत्य भी हो । इसलिए मिथ्या शब्द का भ्रम भ्रान्ति–अर्थ करने पर बडा भारी अनर्थ होगा। इसलिए सृष्टि को मिथ्या कहकर न तो अभावात्मक-शून्यात्मक और न ही भ्रमात्मक कह सकते हैं।
सच देखा जाय तो मोह माया और ममता के बंधन में फँसकर राग-द्वेष की होलियाँ खेलनेवाले इस जीव की...मैं....मैं.. मेरा... मेरा.... इस प्रकार की मोहदशा कम कराने के लिए संसार की असारता, पदार्थों की अनित्यता–क्षणिकता बताई गई है । संध्या के बादलों के सुनहरे रूप, रंग, आकार, प्रकार किस तरह क्षणिक हैं और कैसी भ्रम-भ्रान्ति पैदा करते हैं यह और ऐसा समझाने के लिए.... इस हेतु से मिथ्या कहा गया है। ताकि यह संसारी मोहग्रस्त जीव निरर्थक सब पदार्थों को मेरा मेरा कहता—मानता न फिरे । मेरा न होते हुए भी मेरा मानने की भ्रान्ति में ही फिरता रहता है। अतः वैराग्यवासित करने के लिए और ब्रह्म अर्थात् अपनी आत्मा को सत्य समझने के लिए जगत् को मिथ्या स्वरूप बताया गया है।
दूसरी तरफ मिथ्या शब्द पदार्थ की अयथार्थता अवास्तविकता को द्योतित करता है। इससे यदि संसार के पदार्थों की यथार्थ स्थिति क्या और कैसी है.यह समझ में आना चाहिए इसके साथ साथ मिथ्यात्व का विपरीत विरोधी शब्द सम्यक् भी धोतित करता है । अतः जगत् का मिथ्या स्वरूप है तो ब्रह्म का सम्यक् स्वरूप भी तो है । इसलिए एक का स्वरूप जो है उससे विरोधि-विरुद्ध का भी स्वरूप ख्याल में आना चाहिए। दोनों के यथार्थ सम्यक् स्वरूप समझने ही चाहिए । इसीसे भ्रम-भ्रान्ति और शंका दूर होती है। परिणाम स्वरूप शंकारहित बनने से श्रद्धा के द्वार खुलते हैं।
___ सम्यक् का अर्थ जो जैसा है, उसे ठीक वैसा ही देखना-मानना-जानना है । जिस प्रकार का जिस स्वरूप में है वैसा ही उसी प्रकार का मानना यही सम्यक् का अर्थ है । चाहे वह ईश्वर हो या चाहे वह जगत् हो, या भले ही जीव हो, या भले ही परमाणु क्यों न हो। प्रत्येक पदार्थ के यथार्थ वास्तविक स्वरूप को पहचानना सम्यक् का कार्यक्षेत्र है । ठीक इससे विपरीत मिथ्यात्व का है। अतः जगत् का स्वरूप मिथ्या है या सम्यक् है इसका निर्णय सम्यक् समीचीन ही होना चाहिए । जगत् को मिथ्या कह देने मात्र से यदि वह वैसा मिथ्या अर्थात् अभावात्मक-शून्यात्मक न हो तो कहना गलत-असत्य होगा।
सृष्टिस्वरूपमीमांसा