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________________ बाद भी और कार्योत्पत्ति भी मानने के बाद मिथ्या - शून्य या अभावात्मक कहना यह तो सर्जनहार के अपमान की बात हुई। इससे तो ईश्वर की सर्वज्ञता, सर्वशक्तिमत्ता, सर्वसामर्थ्यता आदि सेंकडों विशेषणों में वैयर्थतापत्ति आएगी। ईश्वर की सर्वज्ञता आदि में ही शंका खडी हो जाएगी। या फिर सृष्टि विषयक सर्जन में अति- दोष या अपूर्णता सिद्ध होगी । यदि मिथ्या का अर्थ शून्य - अभावात्मक न करके "स्वप्नोपम" या भ्रम - भ्रान्ति अर्थ करने से क्या स्वरूप आता है उसका विचार करें ।- स्वप्नोपम अर्थात् स्वप्न के जैसी पृथ्वी कहने से .. जैसे स्वप्न आते हैं उसमें सबकुछ दिखाई देता है और आँख खुलने के बाद देखे हुए में से कोई वास्तविकता नहीं रहती है, ठीक वैसे ही सृष्टि के स्वरूप को स्वप्नो मानने पर स्वप्नतुल्य भ्रान्ति खडी होगी । देखे हुए स्वप्न में जैसे कोई सच्चाई नहीं होती है, आँखे खोलने पर स्वप्नागत पदार्थ दृष्टिगोचर नहीं होते हैं, क्या वैसी ही यह सष्ट है ? ऐसा भी मिथ्या शब्द का अर्थ करने से ... ईश्वर के सर्जन कार्य रूप सृष्टि की वास्तविकता – सत्यता नष्ट हो जाएगी। सृष्टि बनवाई आपने ईश्वर के हाथों से । बनने की सारी क्रिया को वास्तविक सत्य बताया गया और बनने के बाद उसी कार्य रूप सृष्टि को मिथ्या या अवास्तविक -असत्य - कह देना कहाँ तक उचित है ? मिथ्या शब्द के ऐसे अवास्तविक — असत्य भ्रम - भ्रान्ति स्वप्नोपम इत्यादि अर्थ करने से ईश्वर सर्जित सृष्टि की व्यर्थता सिद्ध हो जाएगी। अच्छा तो यही होता कि जब ऐसी सृष्टि को मिथ्या कहना ही था तो फिर ईश्वर निर्मित -सर्जित ही नहीं माननी थी। अच्छा चलो, ईश्वरनिर्मित न भी हो और अन्य किसी कारण से उत्पन्न हो सृष्टि फिर उसे मिथ्या मानना कहाँ तक उचित होगा ? जब मिथ्या ही मानना है तो पहले से उत्पन्न ही न मानें तो और भी अच्छा है । अगर सृष्टि की उत्पत्ति ही न मानें तो जिस ईश्वर को उत्पत्ति का कारक - कारण माना गया है उसका क्या होगा ? क्यों कि सृष्टि करने-बनाने के कारण ही ईश्वर का अस्तित्व, इतना महत्व आदि है । अतः फिर तो ईश्वर को भी मानने की आवश्यकता नहीं रहेगी । इस तरह काफी लम्बी आपत्तियाँ आती है। जो मानने वाले हम हैं हम उसी सृष्टि के एक अंश हैं । और हम स्वयं होते हुए भी अपने स्वयं पर भ्रम - भ्रान्ति कैसे खड़ी करेंगे ? जगत में किसी भी व्यक्ति को शंका - भ्रम दूसरों पर हो सकता है परन्तु स्वयं पर ही भ्रम - या शंका कैसे हो सकती है ? मैं हूँ या नहीं ? यह भ्रम अपने आप पर कैसे हो सकता है ? ` दूसरी भ्रम - भ्रान्ति में निर्णयात्मक कुछ भी नहीं है । क्योंकि भ्रम शंकास्पद है । यह ज्ञानात्मक नहीं अज्ञानात्मक है । भ्रम में द्विधा है । सत्य और असत्य दोनों की द्विधा ८४ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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