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________________ प्रकार की जादूई सृष्टि ही मानी गई है । अतः मानव को विचार करने की आवश्यकता ही नहीं रहती है। इन्सान को इस विषय में विचार करने के लिए...सोचने का ही सर्वथा निषेध किया है। ईश्वर-अल्ला कौन है ? कैसा है? क्या करता है? उसकी किस प्रकार की क्रिया है कैसे सृष्टि बनाता है आदि सब बुद्धि के दरवाजे ही बंद कर दिये हैं। लेकिन इतने से ये बातें सुसंगत कहाँ सिद्ध होती हैं? फिर मनुष्य के लिए प्रश्न चिन्ह सदा ही बना रहता है । और वास्तविक श्रद्धा-सद्भाव भी ईश्वर के प्रति जैसा चाहिए वैसा उत्पन्न नहीं हो पाता है। जगत् मिथ्या है या सत्य ? इतनी चर्चा जो ईश्वर और सृष्टि के विषय में की है... इससे निष्कर्ष क्या निकलता है? क्या यह सब बौद्धिक विलास मात्र है ? नहीं ! सत्य की चरम सीमा तक पहुँचने के सोपान हैं । सत्य की चरम सीमा पाना मानवी का लक्ष्य है । सृष्टि और ईश्वर ये दोनों पदार्थ हमारे सत्य के केन्द्रीभूत विषय हैं । जिस ईश्वर की श्रद्धा पर... उपासना पर सारी जिन्दगी हम बिता देते हैं क्या उस ईश्वर के यथार्थ-सम्यग् स्वरूप को हमें नहीं पहचानना चाहिए? क्यों नहीं? सत्य के द्वार बन्द नहीं करने चाहिए। आइए, यहाँ थोडी विचारणा यह भी कर लें कि.... क्या यह सृष्टि ... जगत् सत्य है कि मिथ्या? ईश्वर तत्त्व है सही। परन्तु वह कैसा है यह स्वरूप निश्चित करना है। वेद-वेदान्तों के हिन्दू शास्त्रों में “ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या" इस सूत्र से सृष्टि बिल्कुल मिथ्या ठहराई गई है । ब्रह्म को तो संपूर्ण सत्य बताया गया है । आश्चर्य की बात तो यहाँ यह है कि... ऐसे सत्यभूत ईश्वर को सत्य ठहराने के बाद उसके द्वारा बनाई गई सृष्टि को क्यों मिथ्या ठहराया गया है यह बात समझ में नहीं आती है । जबकि ईश्वर और सृष्टि के बीच जन्य-जनक भाव-कार्य-कारण भाव सम्बन्ध दिया गया है । सृष्टि के कारण ईश्वर का महत्व - क्योंकि ईश्वर कर्ता है। उसी के द्वारा सृष्टि का निर्माण बताया जाता है। और ईश्वर के द्वारा इस सृष्टि का महत्व । ये दोनों एक दूसरे के पूरक हैं ऐसा कहकर इन दोनों को महत्व दिया गया है । इस तरह ईश्वर और सृष्टि दोनों को एक सिक्के के दोनों बाजू बताकर एकाकारता का जो स्वरूप दिया गया है अब उसके बाद सृष्टि को मिथ्या कहना यह कहाँ तक उचित है? हाँ, यदि सृष्टि को ईश्वर निर्मित नहीं बताया होता और बाद में सृष्टि को मिथ्या माना होता तो वहाँ तक तो बात कुछ अंश में विचारणीय भी होती । लेकिन एक तरफ तो ईश्वर को इतना ऊँचा दर्जा दिया गया है । उसे सर्व शक्तिमान-समर्थ–सर्व व्यापक आदि कई बातें कह कर सृष्टिकर्ता के रूप में महत्व दिया गया है । ईश्वर के स्वरूप ८२ . आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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