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________________ पालन करने की व्यवस्था के लिए विष्णु का स्वरूप स्थापित किया गया, और अन्त में प्रलय विनाश करने के लिए... शंकर का स्वरूप स्थापित किया गया । इस तरह सृष्टि और कर्ता ईश्वर दोनों की उत्पत्ति सिद्ध होती है । तो फिर दोनों का अन्त नाश भी 1 पडेगा । जो कि माना गया है। प्रलय के रूप में। इससे दोनों की उत्पत्ति - नाश - सादि - सान्तता सिद्ध होती है । मानना लेकिन महाप्रलय हो जाने के बाद आकाश, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, परमाणु, तथा आत्माएं इन सबका क्या होगा ? क्या इन सबका भी नाश होगा? ऐसा माना गया है ? आकाश का नाश कैसे संभव है ? फिर भी वैदिक मान्यता में माना गया है। जबकि इन पाँचों द्रव्यों का नाश होता ही नहीं है। सृष्टि सदाकाल एक समान ही रहती है । अपने नित्य-स्थायी पदार्थों की शाश्वतता के कारण । लेकिन कर्ता-ईश्वर की स्थिति नित्य शाश्वत नहीं है I अब जब ईश्वर की उत्पत्ति के पहले भी आकाश आत्मादि द्रव्यों की सत्ता-अस्तित्व है और महाप्रलयरूप सृष्टि के सर्वनाश के बाद भी आकाशादि नित्य द्रव्यों का अस्तित्व रहता ही है तो फिर सृष्टि के कारणभूत ईश्वर का आधार कहाँ सिद्ध होता है ? उसमें तो ईश्वर की कारणता सिद्ध होती ही नहीं है तो फिर निरर्थक मिथ्या भाव लाकर ईश्वर को ही सृष्टि का कारण क्यों मानना चाहिए ? ऐसा मानने में दोनों की गरिमा को आंच आती है और स्वरूप में विकृति आती है । इससे अच्छा तो यही होगा कि... ईश्वर और सृष्टि दोनों के बीच कोई कार्य-कारणभाव या जन्य - जनकभाव का संबंध मानना ही नहीं चाहिए । इससे सत्य स्वरूप स्वीकारने में कोई बाधा नहीं आएगी। और यथार्थता स्वीकारने से.. . विकृति सर्वथा नहीं आएगी । और विकृतिरहित ही शुद्ध प्राकृतिक स्वरूप दोनों का स्पष्ट होगा । इसी में लाभ है । ईश्वर सशरीरी है या अशरीरी ? किसी की भी रचना करने के लिए पहले करनेवाले की भी रचना होनी आवश्यक है । क्रिया को करने वाले को कर्ता कहते हैं । क्रिया के कारण कर्ता और कर्ता के कारण क्रिया ये दोनों परस्पर आधारित हैं । यदि क्रिया होती है तो कर्ता निश्चित अपेक्षित है । और कर्ता हो तो ही क्रियां संभव है। सृष्टि की रचना यह क्रियात्मक स्वरूप है । बिना क्रिया के रचना संभव नहीं है । तो पहले यह सिद्ध करना चाहिए कि सृष्टि की रचना हुई है या नहीं ? यदि रचना निर्माणात्मक कार्य ही नहीं हो तो कर्ता की अपेक्षा ही नहीं है । और यदि कर्ता कोई क्रिया ऐसी हो कि जो निर्माणात्मक कार्य की उत्पत्ति करता हो तो तो आध्यात्मिक विकास यात्रा ७८
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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