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के दोनों के स्वरूप में आपत्ति आती है । ऐसी स्थिति में दोनों ही मानना और दोनों ही एक दूसरे के पूरक है, पर्याय जैसे ही बन चुके हैं। दोनों एक दूसरे के बिना नहीं रह सकते हैं ऐसी स्थिति बना दी गई है । अतः ईश्वर के बिना सृष्टि नहीं और सृष्टि रचना किये बिना ईश्वर नहीं ऐसी विचारधारा बना बैठे हैं । व्याप्ति भी ऐसी ही होगी क्या? जहाँ जहाँ ईश्वर वहाँ वहाँ सृष्टि ? या जहाँ जहाँ सृष्टि वहाँ वहाँ ईश्वर ? क्या और कैसे मानना? इन दोनों प्रकार की अन्वयव्याप्ति भी नहीं बैठेगी। क्योंकि अतिव्याप्ति दोष आएगा । जहाँ जहाँ ईश्वर वहाँ वहाँ सृष्टि कहने में निर्गुण ब्रह्म, विदेह मुक्त ईश्वर में सृष्टि रचना का अभाव आने पर भी ईश्वरत्व तो वहाँ भी रहता ही है । ईश्वरत्व होते हुए भी सृष्टि कर्तृत्व वहाँ नहीं रहता है। अतः सृष्टिकर्तृत्व के बिना भी ईश्वरत्व रहता है तो वहाँ अतिव्याप्ति दोषापत्ति आती है। इसी तरह दूसरे पक्ष में- जहाँ जहाँ सृष्टि रहती है वहाँ वहाँ ईश्वरकर्तृत्व रहता ही है। यह साहचर्य भी अतिव्याप्ति दोषग्रस्त है। आकाश की सृष्टि, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, गति-स्थिति सहायक द्रव्य, परमाणु द्रव्य, चेतन जीवात्मा आदि अनादि-अनन्त-अनुत्पन्न-शाश्वत द्रव्यों की रचना जो ईश्वर कृत ही नहीं है । अर्थात् ईश्वर के करने के बिना भी इन द्रव्यों की स्थिति है । जो त्रैकालिक है । अतः इन्हें अनुत्पन्न द्रव्य माना है। और जो अनुत्पन्न होते हैं वे अविनाशी ही होते हैं । ऐसे अनुत्पन्न-अविनाशी द्रव्य अनादि-अनन्त स्थिति वाले होते हैं अतः वे किसी भी व्यक्ति या ईश्वर द्वारा भी बनाए हुए नहीं होते हैं । इसलिए इनकी रचना का निरर्थक श्रेय ईश्वर को लेने का या देने का प्रयत्न बालिश प्रयत्न होगा। जब ईश्वर के बिना भी इन पदार्थों का अस्तित्व सदा है ही तब फिर ईश्वर को बनाने का श्रेय कैसे मिल सकता है ? संभव ही नहीं है । और इन्हीं पाँच मुख्य पदार्थों के समूहात्मक स्वरूप को ही विश्व-ब्रह्माण्ड कहते हैं फिर क्यों ईश्वर पर रचना का भार लादना?
ईश्वर अनादि-अनन्त है या सृष्टि?
यह प्रश्न उठना स्वाभाविक · · ही है। इसमें किसको अनादि-अनन्त-अनुत्पन्न अविनाशी मानें? ईश्वर को या सृष्टि को? यदि प्रथम पक्ष ईश्वर को अनादि-अनन्त-अनुत्पन्न-अविनाशी मानते हैं तो उसी के साथ ईश्वर को भी ठीक वैसा ही मानना पडेगा। क्योंकि ईश्वर का अस्तित्व इस सृष्टि-संसार में ही है या इससे बाहर भी? सष्टि-संसार से बाहर है ही क्या? वह कहाँ ? जब स्थान ही निश्चित होना संभव नहीं है तो फिर वहाँ ईश्वर का अस्तित्व कैसे मानें? जैन मतानुसार तो लोक
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आध्यात्मिक विकास यात्रा