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________________ फिर ईश्वर को भी अपूर्ण ही मानना पडेगा, यदि वही कर्ता है तो । यदि ईश्वर सर्व शक्तिमान समर्थ कर्ता है तो फिर उसे सृष्टि रचना में अनन्त काल तो लगना ही नहीं चाहिए। उसका सृष्टि रचना का काल एवं कार्य समाप्त क्यों नहीं होता है ? आज भी कहीं स्थल भाग का समुद्र होता है और समुद्र भाग का स्थल रूप में निर्माण होता है । कल जहाँ नदी नहीं थी वहाँ आज नदी बन जाती है और आज जो नदी है वह सूख कर स्थलभाग बन जाती है। पुनः उस पर लोग खेती आदि करते रहते हैं । अतः पुनः पर्वतादि के बनने से तथा जीवों की संख्या वृद्धि होती रहने से क्या अभी भी सृष्टि का रचना क्रम जारी है ? यही मानना पडता है । संसार में प्रतिदिन... तो क्या प्रतिक्षण जीवों की उत्पत्ति सर्वत्र होती ही रहती है । सृष्टि में क्रियारहितता तो कभी भी नहीं आई और कभी आती भी नहीं हैं। सृष्टि सदा ही क्रियाशील सक्रिय ही रहती है। जीवों का जन्म-मरण सतत चालू ही रहता है। उत्पत्ति-नाश चलता ही रहता है। उत्पाद–व्यय यही पदार्थों का धर्म है। और उत्पाद-व्यय होते हुए भी मूलभूत चेतन जीव तथा पुद्गल परमाणुओं की सदा नित्यता बनी ही रहती है । यदि परमाणु नष्ट ही हो जाते तो फिर वापिस क्या रहता? तो एक दिन ऐसा भी आ जाता कि सृष्टि का सर्वथा अभाव ही हो जाता? यदि परमाणु और चेतनात्मा का नाश होता रहता... और काल तो अनन्त बीत गया है... परमाणु भी जगत में अनन्त हैं । जीवात्मा भी अनन्त हैं। और काल भी अनन्त है । बीतते हुए अनन्त काल के साथ अनन्त परमाणु और अनन्त चेतनाओं का नाश हो चुका होता तो आज तो कुछ भी शेष नहीं रहता। लेकिन अनन्त काल भूतकाल में बीतने के बावजूद आज भी पदार्थों की अनन्तता, जीवात्माओं की अनन्तता प्रत्यक्ष गोचर है । बस, यही सिद्ध करता है कि पदार्थों में उत्पाद-व्यय के कारण सिर्फ पर्यायों में परिवर्तन आता है ... परन्तू मूलभूत द्रव्य में कोई परिवर्तन नहीं आता है। उसकी सत्ता तीनों काल में एक समान–एक जैसी ही बनी रहती है । क्योंकि प्राकृतिक नियम और व्यवस्था ही ऐसी है। अब गहराई से सोचिए .... कि... पदार्थों में उत्पाद–व्यय के कारण पर्यायें बदलती ही रहती है और द्रव्यस्वरूप स्थायी हो.. जो सदा ही रहता है । तथा परमाणुओं का संयोग-वियोग होता ही रहता है। परमाणुओं के संमिश्रण से पौद्गलिक पदार्थों का बनना निर्माण होना जारी ही रहता है । तथा उसी तरह परमाणुओं के विसर्जन वियोग से वापिस बने हुए पुद्गल द्रघ्य का नाश होता ही रहता है। यह प्रक्रिया जब स्वाभाविक प्राकृतिक रूप में चलती ही रहती है तो फिर ईश्वर को करना क्या है? सृष्टि रचना के कार्य में ईश्वर को करने की क्रिया रूप कोई कार्य रहता ही नहीं है। तो फिर निरर्थक ईश्वर को कर्ता कहकर उसका स्वरूप विकृत क्यों करना चाहिए? ७४ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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