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________________ वास्तविक—सच्चाई है तो फिर जबरदस्ती ईश्वर पर दोषारोपण करके ईश्वर के स्वरूप को कलंकित करना और उसमें भी सामान्य जीव से भी उसका स्तर नीचे उतार देना कहाँ तक उचित लगेगा ? कितना हास्यास्पद होगा ? अतः उपास्य आराध्य तत्त्व ईश्वर को सर्वथा निष्कलंक निर्दोष रूप में उसके वास्तविक स्वरूप में मानें इसी में सच्चाई है । क्या जीव को भी ईश्वर ही बनाता है ? - हमने अभी अजीव विषयक विचारणा की । जिसमें आकाशादि पदार्थों का विचार किया । जब आकाश और परमाणुओं आदि के निर्माण की बात भी ईश्वर में सिद्ध नहीं हो सकती है तो फिर ... जीव को बनाने की बात भी कैसे सिद्ध होगी ? सर्वथा असंभव लगती है । यह चेतन—जीवात्मा कैसी है ? किस प्रकार का द्रव्य है ? कैसे इसके गुण हैं ? यह कैसा गुणात्मक पिण्ड है ? इस प्रकार चेतन जीवद्रव्य के बारे में यथार्थता–वास्तविकता देखने पर उसको बनाने की प्रक्रिया संभव हो ही नहीं सकती है । सर्वथा असंभव लगेगी । इस संसार में कितने जीव हैं ? अनन्त जीव हैं । अनन्त की संख्या उसे कहते हैं जिसका गिनने में कभी अन्त आ ही नहीं सकता है । इतने अनन्तानन्त जीव समस्त लोक में भरे पड़े हैं । समस्त लोक में सब मिलाकर भी अनन्तानन्त हैं । निगोद में भी अनन्तानन्त हैं । सिद्धशीला पर पहुँचे हुए .. संसार से मुक्त ऐसे सिद्ध जीव भी अनन्त हैं । इस संसार के व्यवहार में चारों गति में भी अनन्त जीव हैं ..... इतना ही नहीं एक आलु -प्याज - लसून - गाजर आदि में ही अनन्त जीवों की सत्ता है । जीवों की इस अनन्त संख्या के सामने काल भी अनन्त ही है । तो क्या ऐसा समझना कि... अनन्त काल से ईश्वर अनन्त जीवों को बनाता ही गया ? और अभी कब तक बनाता जाएगा ? जब भूत काल में बनाते बनाते अनन्त काल बीत गया तो फिर आगे भी कितने अनन्त काल तक बनाता ही रहेगा? और कितने भी काल तक बनाता रहे तो भी अनन्त की संख्या में क्या फरक पडेगा ? कितना फरक पडेगा ? समुद्र में से १ बूँद निकालो तो भी क्या और एक बूँद उसमें नई· डाली भी जाय तो भी क्या फरक पडता है ? यदि अनन्त काल से बनाते-बनाते ईश्वर अब भी यदि बनाता ही जा रहा है तो इसका अर्थ यह होता है कि... सृष्टि का कार्य अभी तक तो पूरा हुआ ही नहीं है । जब अनन्त काल के बीतने पर और बनाने की क्रिया निरंतर चलती रहने पर भी .. . यदि सृष्टि रचना के कार्य की समाप्ति नहीं हो पाई तो फिर इस सृष्टि को सदा ही अपूर्ण गिननी पडेगी । और ऐसी अपूर्ण सृष्टि के कारण इसके करनेवाले कर्ता ईश्वर को फिर कैसे पूर्ण मानें ? सृष्टिस्वरूपमीमांसा ७३
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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