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प्रकार की विषमताओं के कारण सृष्टि कितनी ज्यादा विचित्र लगती है । बडी अजीब सी विचित्र लगती है । बिचारे कृमि-कीट-पतंग आदि छोटे जीव-जंतुओं को देखकर ऐसा लगता है कि... ये बिचारे कैसे जीते होंगे? इनकी स्थिति कितनी दयनीय है ? मनुष्य जो आहारादि खाकर मल-विष्टा बनाता है उसे... सूअर खाए और सूअर के शरीर का मांस फिर मनुष्य खाय यह कितनी विचित्र बात है। इन सेंकडों प्रकार की विषमताजन्य विचित्रताओं को दूर करने के लिए बनानेवाले को सोच-समझकर... समीचीन–समान रूप में ही बनाना चाहिए। यदि सचमुच ही कोई बनानेवाला हो तो? और बनानेवाला सर्वशक्तिमान समर्थ हो तो उसे संपूर्ण संतुलित सृष्टि का निर्माण करना चाहिए । वैसा समर्थ सर्वशक्तिमान जिसे ईश्वर कहा जाता है उसके सृष्टि करने के बावजूद भी सृष्टि की विषमता-विचित्रता दूर नहीं हुई तो फिर ... मानवकृत कृति में तो समानता कहाँ संभव हो सकती है?
अन्त में यह सृष्टि तो जैसी है वैसी है ही। यह सृष्टि भूतकाल में कभी भी समानतावाली... समीचिन थी ही नहीं। और हो भी नहीं सकती है। क्योंकि.. प्रत्येक जीवों के भिन्न भिन्न कर्म हैं । वे भिन्न भिन्न प्रकार के पापों को करके ही जीवों ने उपार्जित किये हैं। और उन पापकर्मों के विपाक के उदय में .. वे जीव भिन्न भिन्न प्रकार का दुःख भोगते हए दुःखी बनें इसमें आश्चर्य ही क्या हो सकता है ? सृष्टि की विषमता-विचित्रता
और विविधता का दोष ईश्वर पर डालने की जरूरत ही क्या है ? यह दोष स्पष्ट रूप में जीवकृत कर्म पर ही डालना चाहिए। और कर्म पर भी डालकर क्या फायदा? कर्म भी तो जड है । जड-पुद्गल के परमाणुओं से ही बने हुए पिण्ड रूप हैं। जड का दोष कहाँ तक निकालेंगे? आखिर तो उन जड-पौद्गलिक कर्मों को बाँधनेवाला--करने वाला तो जीव ही है। फिर कहाँ प्रश्न खडा होता है कि कर्म को दोष दें ? सचमुच तो जीव को ही दोष देना उचित है।
हाँ, जीव तो अज्ञानी है, अनभिज्ञ है, अपूर्ण है, अधूरा है, अन्जान है ही.. अतः उसकी ऐसी विषम सृष्टि को देखकर विषमता-विचित्रता का दोष जीवों पर ही डाल दें तो कोई गलत नहीं होगा ... वरना बिल्कुल सही होगा। जीव स्वयं ही इस कलंक से कलंकित है । इसलिए जैसा जीव-जैसे जीव के कर्म ... बस, वैसी विषम-विचित्र सृष्टि बनने में कोई आश्चर्य भी नहीं हो सकता। यही शुद्ध स्वरूप है । लेकिन ईश्वर को तो इस निरर्थक कलंक से बचा सकते हैं। ईश्वर-परमेश्वर को तो सर्वथा निष्कलंक शुद्ध-बुद्ध-सिद्ध ही रखना चाहिए । जब जीवों की दुःखमयी सृष्टि का कर्ता ईश्वर है ही नहीं और यही
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आध्यात्मिक विकास यात्रा