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________________ दूसरा पूरी जिन्दगी भर सन्तान के लिए तडपता ही रहता है । एक गूंगा-बहरा है तो दूसरा बोलता-सुनता है । एक अंधा- काना है तो दूसरे काफी लोग देखते हुए हैं। एक विद्वान है तो दूसरा मूर्ख है । इस प्रकार सेंकडों प्रकार की विषमता संसार में सर्वत्र प्रत्यक्ष दिखाई देती है । लोग व्यवहार में भी प्रत्यक्ष देखा जाता है कि... बनी-बनाई वस्तु के अधूरेपन से या बिगडने के कारण बनानेवाले की अपूर्णता, अज्ञानता, अनभिज्ञता, अंजानपना उभरकर सबके सामने आता है । अब सज्जनों! स्पष्ट विचार कर लीजिए कि ... इस संसार में उपरोक्त बताई गई वैसी अनेक प्रकार की विषमताओं से भरी पडी ही विषम सृष्टि को देख कर बनाने वाले की अज्ञानता-3 -अपूर्णतादि सिद्ध नहीं होंगी ? स्पष्ट रूप में सिद्ध होगी । और ऐसी सृष्टि को बनानेवाला भी जैसा तैसा सामान्य व्यक्ति नहीं परन्तु ईश्वर माना जाता है तो ईश्वर भी अज्ञानी - अपूर्ण - अनभिज्ञ - अननुभवी - अंजान ही माना जाएगा । इन कलंकों से कलंकित ईश्वर का स्वरूप कितना भद्दा हो जाएगा ? इसकी कोई कल्पना ही नहीं कर सकता । जब ईश्वर के विषय की पूज्यता - सद्भावना ही नष्ट हो जाएगी तो फिर शेष क्या बचेगा ? और कलंकों से कलंकित को ही ईश्वर मानना हो तो फिर सामान्य व्यक्ति को क्यों न माना जाय ? ऐसे व्यक्ति जगत में कितने हैं ? लाखों करोडों हैं । तो क्या लाखों-करोडों सभी ईश्वर कहलाएंगे ? और सभी क्या सृष्टि के कर्ता कहलाएंगे ? यह कैसे संभव हो सकता है । फिर तो अव्यवस्था खडी हो जाएगी । यह बहुत ही भद्दा लगेगा । इसलिए इतनी लम्बी बात बढाने और बिगाडने की अपेक्षा सीधा ही क्यों न मान लिया जाय कि ... संसार में सभी जीव स्व-स्व कर्मानुसार सुखी - दुःखी बनते हैं । ईश्वर कहीं बीच में आते ही नहीं है। ईश्वर तो उपास्य - आराध्य तत्त्व । वह इस सृष्टि से परे है । उसे न तो बनाने की आवश्यकता है और न ही चलाने की आवश्यकता है । न ही बिगाडने की आवश्यकता हैं । इस संसार में अजीव सृष्टि जो अनादि - अनन्त नित्य शाश्वत है 1 और जीव सृष्टि स्वयं स्व-स्व-कृत कर्मानुसारी सुखी - दुःखी है। आखिर सुखी भी है तो जीव ही है... उसने जैसे शुभ कर्म किये उसके कारण वह सुखी है, और उस जीव ने जैसे अशुभ कर्म किये हैं उसके कारण वह दुःखी है। अपने किये हुए कर्मों का फल वह भुगत रहा है। बस इतनी सी सीधी सरल बात है। ऐसा स्वीकारने कहीं कोई आपत्ति नहीं है । फिर निरर्थक बात को लम्बी-चौडी घुमाकर उसे विकृत करके ईश्वर को दोषित-कलंकित करके मानने की आवश्यकता ही कहाँ रहती है ? जिस तरह संसार में विषमता देखी जाती है उसी तरह विचित्रता भी बडी भारी देखी जाती है । और यह विचित्रता क्या है ? यह विषमता के कारण ही फैली हुई है । इन सेंकडों सृष्टिस्वरूपमीमांसा ७१
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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