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द्रव्य होता है वह वह अनुत्पन्न होता है ? और जो जो अनुत्पन्न द्रव्य होता है वह वह अनादि द्रव्य होता है । ऐसे अनादि द्रव्य जो उत्पन्न ही नहीं होते हैं उनको बनाने का सवाल ही कहाँ खड़ा होता है ? उनके कर्ता का पता लगाने की निरर्थक बालिशता ही क्यों करनी चाहिए ?
दूसरी तरफ .... . जो पदार्थ – अनादि-अनुत्पन्न होते हैं वे पदार्थ अविनाशी - शाश्वत अनन्त होते हैं । उनका अन्त भी कभी नहीं होता है। नाश-विनाश कभी भी नहीं होता । अतः वे सदाकालीन रहने वाले होने के कारण नित्य शाश्वत ही सिद्ध होता हैं । इस तरह ये पंचास्तिकाय पाँचों पदार्थ अनादि अनुत्पन्न - अविनाशी - शाश्वत - नित्य हैं । ये काल के परे हैं । अतः काल के बंधन का व्यवहार इनके साथ नहीं हो सकता इसलिए कालातीत ये पदार्थ हैं । अनादि और अनन्त ये कालवाची संज्ञा है । काल की गणना में इनकी गणना नहीं होती है ।
अब सोचिए... इन पदार्थों की उत्पत्ति का प्रश्न ही कहाँ रहता है ? पदार्थ होते हुए भी उत्पन्न नहीं होता है और उत्पन्न न होते हुए भी पदार्थ रूप में है । अतः त्रैकालिक अस्तित्ववाले हैं । इस प्रकार की तीनों काल की सत्ता के कारण ये पाँचों अस्तिकाय पदार्थ ईश्वर के कार्यक्षेत्र की गणना में भी नहीं आते हैं । जब ईश्वर के करने के क्षेत्र से वे बाहर हैं तो फिर ... ईश्वर के करने की - बनाने की बात कहाँ सिद्ध होगी ? और ईश्वर कर्तृत्व की बात ही सिद्ध नहीं होगी तो ईश्वर की कर्ता के रूप में निरर्थकता सिद्ध हो जाएगी ।
कैसा अनुमान रखें ? अनुमान अस्तित्व साधक सहायक साधन है। ज्ञान पद्धति है । यहाँ पर ईश्वर और सृष्टि इन दोनों में हम किस प्रकार के अनुमान से कैसे साधे ? क्या सृष्टि का अनुमान करके ईश्वर को साधें ? या ईश्वर के अनुमान से सृष्टि को साधें ? जैसेपुत्र के अनुमान से पिता की सिद्धि और पिता के अनुमान से पुत्र की सिद्धि होती है । क्या ठीक वैसे ही जन्य–जनकभाव से, कार्य-कारण भाव से ईश्वर और सृष्टि की सिद्धि हो जाएगी। क्या सृष्टि रचना करने के सिवाय ईश्वर के स्वरूप की सिद्धि हो ही नहीं सकती है ? तो फिर ईश्वर ने जब सृष्टि रचना की उसके पहले के ईश्वर के स्वरूप में कोई शुद्ध स्वरूप नहीं था ? क्या हम ईश्वर को सृष्टि रचना के कार्य के व्यतिरिक्त देख ही नहीं सकते हैं ? सोच ही नहीं सकते हैं ? यहाँ पर ही बडी भारी भूल होती है । तो फिर सृष्टि रचना के पहले ... ईश्वर का स्वरूप कुछ था ही नहीं क्या ? जैसे पुत्र ने उत्पन्न होकर एक व्यक्ति को पितापने का दर्जा दिया है । यदि पुत्र ही नहीं होता तो उस व्यक्ति को पिता कौन कहता ? संभव ही नहीं है । क्या वैसे ही सृष्टि ही नहीं बनी होती तो ईश्वर को ईश्वर ही कौन कहता ?
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आध्यात्मिक विकास यात्रा
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