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________________ अध्याय २ सृष्टिस्वरूपमीमांसा परम पिता परमात्मा पावन परमेष्ठि प्रभु महावीरस्वामी भगवान के चरणारविन्द में अनन्त वन्दना करते हुए ... अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण च सुहाण य । अप्पा मित्तममित्तं च दुप्पट्ठिय सुपट्टिओ ।। उत्तरा २०-३७ अनन्त उपकारी करुणा के सागर, दया के भंडार सर्वज्ञ प्रभु श्री महावीर स्वामी ने अंतिम देशना में फरमाते हुए इस जगत को कहा है कि आत्मा ही अपने दुःख और सुख का कर्ता स्वयं है । भोक्ता भी स्वयं ही है । पाप कार्य में प्रवृत्त आत्मा ही अपनी शत्रु है और पापकर्म के क्षय की प्रवृत्ति में प्रवृत्त आत्मा स्वयं ही अपनी मित्र है । अतः हे जीव ! तुझे सुख-दुःख देनेवाला कोई अन्य नहीं है । इतना सुंदर सत्य जब परमात्मा ने स्पष्ट कर दिया है फिर भी यदि हम सुख-दुःख देने वाले किसी अन्य को माने तो हमारी कितनी अज्ञानता सिद्ध होगी ? क्या जगतं का कर्ता संभव है ? हम आगे की प्रथम पुस्तिका में जगत्-लोक के ऐसे विराट और विशाल स्वरूप क़ो देख आए हैं, जो सारा जगत् सिर्फ पंचास्तिकायात्मक स्वरूप है, षड् द्रव्यात्मक स्थिति है, जो सहज-स्वाभाविक है । जो अनादि - अनन्तकालीन स्वस्थिति में स्थित है । ऐसे इस जगत को बनाने का प्रश्न ही कहाँ उपस्थित होता है ? वीतरागी सर्वज्ञ भगवन्तों ने इस जगत के स्वरूप को जैसा है वैसा बताया है। न कि बनाया है । " बताना" और " बनाना” इन दो शब्दों में जमीन-आसमान का अन्तर है । बतानेवाले को बनाने की आवश्यकता ही नहीं है । जो सदा कालीन - नित्यस्वरूप में स्थित है, जो जैसा है उसका ठीक वैसा ही यथार्थ स्वरूप जगत को बताना है । जबकि बनानेवाले के लिए प्रत्येक वस्तु बनानी पडेगी । क्या इन दोनों में हम ऐसा विचार करें कि बनानेवाला महान है कि बताने वाला ? यदि हम इस महानता का विचार करें तो स्वाभाविक ही लोकमानस बनानेवाले को ही महान सृष्टिस्वरूपमीमांसा ६१
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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