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________________ इस प्रकार ये छः आरे-अवसर्पिणी काल में होते हैं । इन में क्रमशः सुख घटता.. .. घटता... कम होता ही जाता है और बाद में दुःख क्रमशः बढता.... बढता बढता ही रहता है। इसी प्रकार शरीर-आयुष्य-शुभ परिणाम-बल, संघयण सत्त्व आदि सब बिल्कुल घटता कम होता ही जाता है । इस परिस्थिति में हम सभी आज वर्तमान काल में पाँचवे दुःखम् आरे में जी रहे हैं । जो २१००० वर्षों का है। इसमें से अभी तक तो सिर्फ २५२० वर्ष ही बीते हैं । अभी तक १८४८० वर्ष और बीतने शेष हैं । जब आज ही चारों तरफ दुःख का प्रमाण इतना ज्यादा दिखाई दे रहा है तो... आगे कल्पना करिए क्या और कैसी स्थिति होगी? जिसकी कल्पना करने से भी चक्कर आ जाती है । सोच भी नहीं सकते हैं, ऐसी परिस्थिति निर्माण होगी। एक घडी पर नजर करिए।....जैसे १२ अंक पर से काँटा नीचे उतरता-उतरता .६ के अंक पर नीचे आता है ऐसे ६ आरे नीचे उतरते क्रम से अवसर्पिणी में आते हैं। और घडी का काँटा ६ अंक से वापिस ऊपर चढता-चढता....१२ तक ऊपर जाता है वैसे ही... उत्सर्पिणी के ६ आरे का काल क्रमशः ऊपर चढता ही रहता है । इस तरह अनन्तकाल से निरंतर चलते हुए इस कालचक्र में एक के बाद दूसरा आरा, दूसरे के बाद तीसरा आरां आता ही जाता है। और १२ आरे उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी के बीतने पर पूरा कालचक्र पूर्ण हो जाता है।.... फिर वापिस दूसरे कालचक्र के आरे चलते रहते हैं । इस तरह अनन्त कालचक्रों का काल तो भूतकाल में बीत चुका है । और भविष्य में भी अनन्त कालचक्र होते ही जाएंगे । इसका कहीं कोई अन्त ही नहीं है । अतः संसार अनादि-अनन्त है। काल भी अनादि-अनन्त है। ' और जीव भी अनादि-अनन्त है । यह क्रम चलता ही जाता है । और चलता ही रहेगा। इसका अन्त संभव नहीं है। सिर्फ परिवर्तन होता ही रहता है । आज किसी-किसी ने अपनी मान्यताएं सर्वथा गलत विपरीत बनाकर लोगों को डराना-भडकाना शुरु किया है कि-बस अब ६ वर्ष में सर्वनाश हो जायेगा। अभी १९९६ वर्ष चल रहा है और ४ वर्ष बाद २००० की साल जगत् का स्वरूप ५५
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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