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६ आरों का स्वरूप
जैन काल गणना पद्धति में-२० कोडा कोडी सागरोपम प्रमाण १ कालचक्र की गणना की गई है । इसमें १० कोडा कोडी सागरोपम प्रमाण १ उत्सर्पिणी होती है । और १० कोडा कोडी सागरोपम प्रमाण १ अवसर्पिणी होती है । (क्रोड को क्रोड से गुणाकार करने पर कोडा कोडी होता है। यहाँ १० कोडाकोडी बराबर १०,००,००,००,००,०००,००० वर्षों का काल होता है । उत्सर्पिणी अर्थात् साँप की पूँछ के जैसे ऊपर मुँह की तरफ आगे आते हैं तो कैसे मोटा-बड़ा स्वरूप लगता है वैसे ही चढते हुए काल को उत्सर्पिणी काल कहते हैं । इस में ६ आरे होते हैं। १) दुःखम् + दुःखम् नामक छट्ठा आरा- २१००० वर्ष २) दुःखम् नामक पाँचवा आरा
२१००० वर्ष ३) दुःखम् + सुखम् नामक चौथा आरा- ४२००० वर्ष कम ऐसा
१ कोडाकोडी सागरोपम ४) सुखम् + दुःखम् नामक तीसरा आरा- २ कोडाकोडी सागरोपम ५) सुखम् नामक दूसरा आरा
३ कोडाकोडी सागरोपम ६) सुखम् + सुखम् नामक पहला आरा
___ उत्सर्पिणी-ऊपर चढने के क्रम से आरे होते हैं । इसलिए इनमें दुःख में से क्रमशः सुख की तरफ धीरे धीरे ऊपर चढते जाते हैं । काल अच्छा अच्छा आता ही जाता है । इस उत्सर्पिणी काल में- शरीर-आयुष्य-शुभ परिणामों की क्रमशः वृद्धि-चढती हुई अवस्था देखी जाती है । इसी उत्सर्पिणी के ठीक विपरीत अवसर्पिणी काल है ।
अवसर्पिणी काल में साँप के मुँह से पूँछ तक आते हैं तो कैसे क्रमशः उतरता हुआ-घटता लगता है वैसे ही अवसर्पिणी काल में सब कुछ उतरता हुआ घटता ही रहता है । अतः इसे नीचे उतरता हुआ Descending era कहते हैं । इसका पहला आरा सुखम् + सुखम् -
४ कोडाकोडी सागरोपम का है। २ रा आरा सुखम् नामक
३ कोडाकोडी सागरोपम का है। ३ रा आरा सुखम्-दुःखम् नामक
२ कोडाकोडी सागरोपम का है । ४ था आरा दुःखम्-सुखम् नामक
१ कोडाकोडी सागरोपम में
___४२,००० वर्ष कम का है। ५ वाँ आरा दुःखम् नामक
२१००० वर्ष का होता है। ६ ठा आरा दुःखम्-दुःखम् नामक
२१००० वर्ष का होता है।
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आध्यात्मिक विकास यात्रा