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________________ द्रव्यों की गिनती में इसकी गणना जरूर की गई है । परन्तु द्रव्य की व्याख्यानुसार भी इसे द्रव्य कहा जाना मुश्किल है । क्योंकि 'गुण-पर्याय-वद् द्रव्यम्' गुण और पर्यायवाले को ही द्रव्य कहा जाता है। इस व्याख्यानुसार काल के अपने स्वयं के गुण नहीं हैं। वर्तना–परिवर्तनादि कालकृत व्यवस्था है । अतः द्रव्य न होते हुए भी द्रव्य के जैसा काम देता है अतः भी द्रव्यों के अन्तर्गत इसकी गणना की जाती है । उपचार भाव से औपचारिक रूप से द्रव्य की गिनती में गणना होती है । काल के अणु-प्रदेश या स्कंध नहीं होते हैं। अतः भी स्वतंत्र द्रव्य नहीं सिद्ध होता है। १) वर्तना, २) परिणाम, ३) क्रिया, ४) परत्व और ५) अपरत्व इन पाँच तरीकों से अन्य द्रव्यों को निमित्तभूत होने से काल का जगत पर उपकार है । अतः काल से इन पाँच प्रकार की व्यवस्था होती है। ___ १. वर्तना-अर्थात् विद्यमानता । उत्पत्ति-स्थिति-नाश होते हुए भी... प्रथम समय से अन्तिम समय तक बने रहना यह भी वर्तना रूप काल प्रत्येक द्रव्य के साथ संलग्न है । २. परिणाम-रूपान्तरित होना । परिणत होना । यह २ प्रकार से हैं । १) अनादि, २) आदिमान । परिणमन में काल निमित्तभूत है। ऋतुओं के परिवर्तन, बालक का बडा–युवक-प्रौढ-वृद्धादि अवस्था में परिणत होना यह कालकृत परिणाम है । काल तत्त्व ही न होता तो हम बच्चे, युवक, प्रौढ-वृद्ध का व्यवहार कैसे करते? यह छोटा भाई है और यह बड़ा भाई है ऐसा व्यवहार काल के कारण ही होता है । क्योंकि यह २ साल पहले जन्मा है अतः बडा है और यह दो साल बाद पैदा हुआ है अतः यह छोटा भाई है। इसे पर-अपर कहते हैं । यह कालकृत परत्व–अपरत्व है । जैसे कोई व्यक्ति १०० वर्ष का है और उसके सामने दूसरा ३० वर्ष का ही है। इसमें १०० वर्ष की उम्र का जो बडा है वह ३० वर्ष उम्र के लिए पर कहलाएगा। यह परत्व है । और १०० वर्ष वाले के सामने ३० वर्ष का अपरत्व होगा। यह काल कृत परत्व-अपरत्व है । इसी तरह गमनागमनादि क्रिया भी कालिक व्यवहार के अन्तर्गत आती है । यह पहले गया यह बाद में गया। यह जल्दी आया यह देरी से आया है। यहाँ पर जल्दी-देरी गतिवाचक होते हुए भी काल गणना में भी इनका व्यवहार होता है । एक घंटे जल्दी-दो दिन जल्दी, एक घंटा देरी से, दो घंटे देरी से इस तरह काल से अन्तर मापा गया है । इसी तरह यह एक दिन पहले ही आ गया है । यह दो दिन देरी से आया गया । इत्यादि व्यवहार काल द्रव्य की अपेक्षा के बिना करना संभव ही नहीं है। जगत् का स्वरूप ४९ .
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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