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क्षेत्रों की अपेक्षा भी इन १५ का ही महत्व इसलिए ज्यादा है कि ये पाँचों धर्मभूमि हैं । इन १५ में ही धर्म रहता है । यहाँ पर ही भगवान और गुरू आदि होते हैं। इन्ही क्षेत्रों में से जीव कर्मक्षय करके मोक्ष भी प्राप्त कर सकता है । इनके सिवाय के क्षेत्रों में ये सारी सुलभता उपलब्ध नहीं होती है। इसलिए इनके सिवाय के क्षेत्रादि सदा ही अधर्मग्रस्त हैं । इसी तरह इन १५ क्षेत्रों में कालादि की व्यवस्था भी काफी अच्छी है । अतः इनका ही महत्व अन्यों की अपेक्षा काफी ज्यादा है।
मानुषोत्तर पर्वत तक ही है । इसके बाद आगे सिर्फ तिर्यंच पशु-पक्षियों की बस्ती है । मनुष्यों की उत्पत्ती-मृत्यु आदि कुछ भी नहीं है । यद्यपि आगे असंख्य द्वीप समुद्र हैं, उन सब में सिर्फ पशु-पक्षियों की-तिर्यंचों की उत्पत्ति-मृत्यु है।
तिर्छालोक में ही ज्योतिष चक्र
- इस संसार में सूर्य-चंद्र तारा ग्रहमाला आदि से कोई अपरिचित-अनभिज्ञ नहीं है। प्रायः सभी जानते ही होंगे। लेकिन प्रश्न यही है कि क्या सही यथार्थ स्वरूप में जानते होंगे या नहीं? जैन दर्शन के खगोल शास्त्रों में सूर्य-चन्द्रादि का काफी यथार्थ वर्णन उपलब्ध है। इसके लिए प्रामाणिक शास्त्र-ग्रन्थ
है—सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, . बृहत्संग्रहणी, लोकप्रकाश,
तत्त्वार्थाधिगमसूत्र आदि अनेक ग्रंथ S, हैं । इनमें से तत्त्वार्थ सूत्र के आधार पर । संक्षेप में वर्णन यहाँ पर प्रस्तुत कर रहा हूँ । सूत्र है
ज्योतिष्काः सूर्याश्चन्द्रमसो ग्रहनक्षत्रप्रकीर्णतारकाच ॥
४-१३ ॥
९०० योजन
मेरु पर्वत
आध्यात्मिक विकास यात्रा