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देवताओं के वर्गीकरण में जो मुख्य ४ प्रकार के देवता गिने हैं उनमें १) भवनपति, २) व्यंतर, ३) ज्योतिषी, ४) वैमानिक ऐसे मुख्य ४ प्रकार गिने हैं । इनमें ये ज्योतिष्क के देवताओं में, १) सूर्य, २) चन्द्र, ३) ग्रह, ४) नक्षत्र और ५) प्रकीर्ण-तारा आदि का समावेश यहाँ होता है। यद्यपि ये सभी देवता हैं लेकिन क्षेत्र की दृष्टि से ये सभी ... यहाँ के तिर्छालोक में ही रहते हैं । ऊर्ध्व या अधो लोक में भी नहीं रहते हैं। अभी अभी पीछे विचार कर आए हैं कि.... तिर्छा लोक-मनुष्य लोक.... जो असंख्य द्वीप-समुद्रों का है उसके ऊपर आकाश में ९०० योजन के अन्तर तक तिर्छा लोक-मनुष्य लोक की सीमा है। और इसी मनुष्य लोक में सूर्य-चन्द्रादि ज्योतिष्क मण्डल स्थित है।
मेरुप्रदक्षिणा नित्यगतयो नलोके ।।४-१४॥ तत्त्वार्थकार कहते हैं कि नृ अर्थात् मनुष्य लोक में जो मेरु पर्वत जंबूद्वीप के केन्द्र में ही स्थित है, जिसका वर्णन पहले किया है, जो १ लाख योजन ऊँचा है, और जमीन के तल भाग पर .... १०००० योजन की चौडाई आदि के विस्तार वाला है, ऊँचाई पर ऊपर-ऊपर सिर्फ प्रत्येक ११ योजन पर एक-एक योजन क्रमशः कम होता हुआ घटता जाता है । इस तरह १०००० योजन जमीन तल पर जो विस्तार था वह प्रति ११ योजन पर १ योजन के घटने के आधार पर अब ९०० योजन की ऊँचाई तक पहुँचते ९०१९ योजन की चौडाई रही । जमीन तल से ७९० योजन की ऊँचाई तक जाने के बाद ज्योतिष्क मण्डल के सूर्य-चन्द्र-ग्रहादि की शुरुआत होती है। जो ११० योजन की ऊँचाई के विस्तार में फैला हुआ है । अतः ७९० + ११० = ९०० योजन तक है ।अतः ९०० योजन तक की ऊँचाई तक का क्षेत्र तिर्छा लोक का है। इसलिए ज्योतिष्क मण्डल के देवता तिर्छालोकान्तर्गत ही गिने जाते हैं।
ज्योतिषी देव १) चर ज्योतिषी देव
२) अचर ज्योतिषी देव इस तरह ज्योतिषी देवता २ प्रकार के बताए गए हैं। १) चर ज्योतिषी । चर अर्थात् सतत चलनेवाले-गतिशील। ये चर-गतिशील ज्योतिषी देवता २१/२ द्वीप के मनुष्य क्षेत्र में ही नित्य गति करते हैं। इसीलिए सूत्रकार ने 'नृलोके' पाठ रखा है। अर्थात् २१/२ द्वीपान्तर्गत मनुष्य क्षेत्र में । दूसरा पाठ है 'नित्यगतयो' नित्य गति करने वाले ऐसे ये ज्योतिषी देवता चर ज्योतिषी हैं। प्रश्न यह उठेगा- कैसी गति? कहाँ गति? .... इसके लिए सूत्रकार ने 'मेरुप्रदक्षिणा' यह पाठ दिया है । मेरुपर्वत के चारों तरफ सतत प्रदक्षिणा देते हुए अर्थात् गोलाकार स्थिति में गोल-गोल घूमते हुए गति कर रहे हैं ।
जगत् का स्वरूप