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________________ अढाई द्वीप में १५ कर्मभूमियाँ आज का मानव विराट विश्व के सामने बहुत ही बावना-वामन लगता है । अतः उसकी सीमित परिमित बुद्धि छोटी सी दुनियाँ ही शोध पाई है । और जितनी शोध पाई है बस उसीको विराट विश्व मान बैठा है । अफसोस है । ज्ञान के अगाध उदधि की कोई सीमा नहीं है । अतः जितनी दुनिया शोधी है उससे तो अनेकगुनी दुनिया शोधनी अवशिष्ट है ४ऐ. ३ऐ. १ऐ. म.४ म. १ म. १भ. २ भ. / ३भ. ४ भ. ५भ यहाँ पर संक्षेप में सारी दुनिया का तो विचार नहीं कर सकते हैं परन्तु खास काम की . . . महत्वपूर्ण १५ कर्मभूमियों का विचार करते हैं । जैन शास्त्रों में प्रयुक्त कर्मभूमि यह एक १ म. २ म.३म विशेष शब्द है । जो ऐसी परिभाषा में प्रयुक्त है कि... असि, मषि, और कृषि के स्वरूप वाली भूमि को कर्मभूमि कहा जाता है। असि-तलवारादि शस्त्रों के व्यवहार को कहते हैं। मषि-श्याही आदि लेखन सामग्री को और कृषि यहाँ पर खेती वाडी आदि के व्यवहार को कहा गया है। ऐसे तीनों व्यवहार जहाँ जिस क्षेत्र भूमि में रहते हैं उसे कर्मभूमियाँ कहते हैं । ये कर्मभूमियाँ संख्या में १५ हैं। - पीछे जिन असंख्य द्वीप-समुद्रों के बीच २१/२ द्वीप समुद्रों की विचारणा की है। उनमें जंबूद्वीप, धातकी खण्ड और पुष्करार्ध द्वीप भी है । जंबूद्वीप में १) भरत क्षेत्र, २) महाविदेह क्षेत्र और ३) ऐरावत क्षेत्र हैं । ठीक वैसे ही ये तीनों क्षेत्र आगे के द्वीप धातकी खण्ड में और पुष्करार्धद्वीप में भी हैं । अन्तर इतना ही है के आगे के द्वीप विस्तार में काफी ज्यादा बडे दीर्घ हैं तथा पूर्व–पश्चिम के विभाग में उत्तर दक्षिण के विभाग में दगने-चौगने विस्तारवाले हैं । इसलिए भरत क्षेत्रादि तीनों क्षेत्र भी दुगुने-दुगुने हैं । अतः धातकी खण्ड और पुष्कर द्वीप दोनों में २ भरत क्षेत्र, २ ऐरावत क्षेत्र, २ महाविदेह क्षेत्र हैं । इस तरह यदि २१/२ द्वीपों में कुल भरतादि क्षेत्रों की संख्या गिने तो चित्रानुसार ५ भरत क्षेत्र + ५ ऐरावत क्षेत्र + ५ महाविदेह क्षेत्र होते हैं = इस तरह ये १५ कर्मभूमियाँ हैं । हरिवर्षादि अन्य जगत् का स्वरूप
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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