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है । सम्यक्त्व प्राप्ति की सही दिशा में आगे बढ़ने के लिए राग-द्वेष की ग्रन्थि का भेदन, अपूर्वकरण की प्रक्रिया द्वारा, करके प्रथम मिथ्यात्व नामक गुणस्थान की जेल से मुक्त होकर, सीधा ही चौथे अविरत सम्यकदृष्टि नामक गुणस्थान पर पहुँचता है । सम्यक्त्व प्राप्त होते ही जीव चौथे गुणस्थान पर आरूढ़ हो जाता है । यद्यपि यह गुणस्थान अविरत है, फिर भी यहां सम्यक् श्रद्धा की कक्षा पूर्ण है । जीव की सच्ची श्रद्धा में कोई कमी नहीं है। अनन्त काल के परिभ्रमण में जीव ने ऐसी सिद्धि, जो पहले कभी भी प्राप्त नहीं की थी, उस सिद्धि को प्राप्त करता है । सर्व प्रथम बार सम्यक्त्व प्राप्त करने का जीव को अनहद, अवर्णनीय आनन्द होता है ।
सम्यक्त्व प्राप्ति का अद्भुत प्रानन्दतया च भिन्ने दुर्भेदे कर्मप्रन्थिमहाबले।
तीक्ष्णेन भाववज्रण बहुसङ क्लेशकारिणी ॥ . योग बिन्दु में कहते हैं कि अपूर्वकरण रूप तीक्ष्ण भाव वज्र द्वारा दुर्भेद्य महाकष्ट से विदारणीय ऐसी राग-द्वेष की निबिड़ ग्रन्थि को भेदकर, जीव जब आगे बढ़ता है तब उसे अत्यन्त आनन्द होता है। वह आनन्द वास्तव में अनुपम, अद्भुत एवं अभूतपूर्व होता है । वह आनन्द अवर्णनीय होता है ।
स्वाभाविक है कि अनादिकाल के महामिथ्यात्व एवं अनन्तानुबंधी कषाय आदि में जीव ने जो वास्तविक आनन्द कभी भी प्राप्त नहीं किया, ऐसा आनन्द आज सम्यक्त्व प्राप्त होने पर वह अनुभव कर रहा है। तेज गरमी की ऋतु में जब मूर्य के प्रखर ताप से भयंकर गरमी पड़ रही हो, और ऐसे में निर्जन वन में चलता हुआ कोई मुसाफिर गर्मी व पसीने से आक्रान्त हो चुका हो, और उसे एकाएक निबिड़ वृक्ष की छाया मिल जावे, साथ ही पानी भी मिल जावे, तो उसे कितना आनन्द होगा ? यदि उसकी सेवा में और वृद्धि होती जावे तो उसके आनन्द में भी वृद्धि होती जावेगी । ठीक इसी तरह अनादिकालीन संसाररूप जो वन अटवी है, उसमें ऋतु परिवर्तन की तरह जन्म-मरण के दुःख होते ही रहे, और उसमें मिथ्यात्व और कषाय के ताप से तप्त हुए तृष्णा रूपी तृषा से पीड़ित ऐसे भव्य जीव रूपी मुसाफिर को, अनिवृत्तिकरण रूपी शीतल वृक्ष की छाया मिलते ही, वह सम्यक्त्व रूपी शीतलता की प्राप्ति से अनहद आनन्द प्राप्त करता है। यह प्रथम बार ही उसे
कर्म की गति न्यारी