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________________ अनादिकाल के अज्ञान दूर होते ही सम्यग् परिणति रूप सम्यक्त्व प्राप्त होता है। इससे संसार परिणति का अन्त आता है । जिस तरह दावानाल जलता-जलता, ऊपर भूमि प्रदेश में आते ही, शान्त हो जाता है, वैसे ही अनादि संसार का अज्ञान एवं मिथ्यात्व अनिवृत्तिकरण के अन्तः करण के फलरूप शुद्ध-सम्यक्त्व प्राप्ति के पास आते ही दूर हो जाता है। उपरोक्त यथा प्रवृत्तिकरण, अपूर्वा रण एवं अनिवृत्तिकरण–तीनों करण के माध्यम से जीव अपनी विकास यात्रा का शुभारम्भ करता हुआ, प्रथम सोपान चढ़ता है, यद्यपि यह सारा कार्य मिथ्यात्व नामक प्रथम गुण स्थानक में होता है। इसके बाद जीव सीधा सम्यक्त्व के चौथे गुण स्थानक पर जाता है । अनादि मिथ्यात्व को तोड़कर, व निबिड़ राग-द्वेष की ग्रन्थि को भेद कर जीव जब प्रथम बार सम्यक्त्व को प्राप्त करता हूँ, तब उसे कितना आनन्द होता है, यह अवर्णनीय है। सम्यक्त्व " मिश्र सास्वादन ।। सास्वादन जीवात्मा→ मिथ्यात्व यह गुण स्थान आरोहण का क्रम हैं । जीवात्मा सम्यक्त्व प्राप्त करने के लिए इस क्रम से आगे बढ़ती है। सर्वप्रथम पहले मिथ्यात्व नामक गुणस्थानक पर जीव यथाप्रवृत्तिकरण आदि करण करता है और अशुद्ध पुजों को शुद्ध करके आगे बढ़ता ८० कर्म की गति न्यारी
SR No.002481
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherJain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha
Publication Year
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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