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टेशन है। इस पहले स्टेशन पर आए बिना जीव आत्म विकास का कार्य प्रारम्भ ही नहीं कर सकता है । अतः प्रथम यथाप्रवृत्तिकरण करना आवश्यक है।
यद्यपि अभव्य जीव जो कि मोक्ष प्राप्ति के लिए योग्य पात्रं भी नहीं हैं, गोक्ष प्राप्ति की जिसकी इच्छा भी नहीं है, ऐसा अयोग्य जीव भी यथाप्रवृत्तिकरण कर लेता हैं, परन्तु आगे बढ़ नहीं पाता है। भव्यात्मा जो योग्यता वाला जीव है, ह यदि आगे के अपूर्वकरण आदि करण न करे, तो पूर्व में किया हुआ यथाप्रवृत्तिकरण भी निष्फल जाता है। जीव ने अनन्तकाल में ऐसे यथाप्रवृत्तिकरण तो
नन्त बार कर लिए, परन्तु ग्रन्थि भेद न कर सकने के कारण वापिस चला गया, गौर पुनः कर्मबंध की उत्कृष्ट स्थितियां बांधने लग जाता है। मिथ्यात्व पुनः तीव्र-गाढ हो जाता है। यथाप्रवृत्तिकरण में प्रयुक्त 'करण' शब्द आत्मबल, आत्म-अध्यवसाय पर्थ में प्रयुक्त है । ओघदृष्टि में से योगदृष्टि में आया हुआ शुक्लपाक्षिक तथाभव्यत्त्व रिपक्व हुआ है जिसका ऐसा भव्य जीव जो पूर्वप्रवृत्त विशिष्ट प्रकार का यथावृत्तिकरण करता हुआ अपनी बांधी हुई कर्मों की उत्कृष्ट बंधस्थितियों को कामनिर्जरा के बल से घटाता हुआ कम करता है । मिथ्यात्व यहां मंद पड़ता है और आत्मा के अध्यवसाय विशुद्ध बनते हैं। अतः वह जीव स्थितिघात करने में विशेष पद्दत बनता है । जैसे कच्चे आम को घास में रखकर गरमी से परिपक्व किया जाता है, वैसे ही यथाप्रवृत्तिकरण में जीव सातों कर्मों की उत्कृष्ट बंधस्थितियां काटकर, हम करता हुआ, अन्ततः कोडाकोडी प्रमाण करता है। आठों कर्मों की अपनी-अपनी उत्कृष्ट बंध स्थितियां निश्चित है । वे इस प्रकार बताई गई है
कर्म की बंध स्थितियां- आदितस्तिसृणामन्तरायस्य च त्रिंशत्सागरोपम कोटीकोट्यः परा
स्थितिः ।। (८-१५) - सप्ततिर्मोहनीयस्य ।। (८-१६) - नामगोत्रयोविंशतः ॥ (८-१७)
] अस्त्रिशत्सागरोपमाण्यायुष्ककस्य ।।८-१८) । तत्त्वार्थाधिगम सूत्र के उपरोक्त सूत्रों में पू. उमास्वाति महाराज ने आठ कर्मों की उत्कृष्ट बंध स्थितियां इस प्रकार बताई है
कर्म की गति न्यारी