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विनाश अवश्य ही होता है। मृत्यु का अर्थ आत्मा का नाश नहीं है, परन्तु मात्र आत्मा का देह के साथ कुछ काल का वियोग विशेष है।
आत्मा अजर-अमर एवं शाश्वत द्रव्य है। द्रव्य को उपाद्-व्यय-ध्रौव्य युक्त (उत्पाद-व्यय-घ्रौव्ययुक्त सत्) द्रव्य कहते हैं । पर्याय स्वरूप से द्रव्य उत्पाद-व्यय युक्त होता है । और स्वद्रव्य के अस्तित्व से नित्य होता है । आत्मा स्वद्रव्यरूप अस्तित्त्व से नित्य है, परन्तु जन्म-मरण की पर्याय के कारण वह उत्पाद-व्यय युक्त है। अमुक प्रकार की गति में जन्म लेकर नाम-देहधारी आत्मा मनुष्य पशु-पक्षी, देव-नारकी, आदि पर्यायवान् कहलाती है। यह पर्याय जन्म से उत्पन्न होती है, और मृत्यु से नष्ट होती है, जैसे सोने के गहने-आभूषण की आकृतियाँ (पर्याय) सैकड़ों बार बदलने के बावजूद भी सोना, पर्याय रूप से उत्पन्न-नष्ट होता हुआ भी, अपनी मूलभूत धातुरूप से सदा ही नित्य (ध्रौव्य) रहता है। वैसे ही आत्मा भी मनुष्य-पशु-पक्षी-देवनारकी आदि जन्म में नाम-देहधारी पर्याय (आकृति) विशेष से उत्पाद-व्यय (उत्पन्न नष्ट) रूप होती हुई भी स्वद्रव्य रूप अस्तित्व से ध्रौव्य अर्वात् अजर-अमर शाश्वत नित्य एवं अविनाशी रहती है । अत: जन्म-मरण की प्रक्रिया में आत्मा की मृत्यु नहीं होती है, लेकिन नाम-गति जाति-शरीर आदि का ही परिवर्तन मात्र होता है । अर्थात पर्याय बदलती है, और आत्मा नित्य रहती है ।
इस तरह इस आत्मा ने अनन्त बार जन्ममरण धारण किये हैं। आत्मा उत्पन्न द्रव्य न होने के कारण उसकी आदि न होने से अनादि अवस्था है । अनादिकाल से आत्मा संसार में जन्म-मरण धारण करती ही रहती है । अनन्त जन्म-मरण बीत चुके हैं । इस तरह काल भी अनन्त बीत गया है । अतः अनादि-अनन्त काल से संसार की चार गतियों में परिभ्रमण करती हुई एवं ८४ लक्ष जीवयोनियों में जन्म-मरण धारण करती हुई, इस आत्मा ने अनन्त-अनन्त भव बिता दिये हैं । (इसका विस्तृत विवेचन पहली पुस्तिका में किया गया है) जब जन्म-मरण अनन्त-अनन्त बीते हैं, तब स्वाभाविक है कि काल भी निश्चित रूप से अनन्त ही बीता है । यद्यपि अनन्त की संख्या होते हुये भी काल का अनन्तपना ज्यादा हैं या जीवों के जन्म-मरण की संख्या का अनन्तपना ज्यादा है ? उत्तर स्पष्ट ही है कि एक जन्म का जीवन अमुक घंटोंमहीनों-वर्षों का होता है। अतः भव संख्या की अपेक्षा कालकी अनन्त संख्या बहुत बड़ी है । हम सर्वज्ञ प्रभु को याश्रिीमाकलनसापरइसारो जन्ममरण करते