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________________ है । अतः मिथ्यात्वी यथार्थ सत्य को विपरीत असत्य मानता है, और असत्य को भ्रमवश सत्य मानता है। ऐसे मिथ्यात्व को शुभ या अच्छा कैसे कहें ? एक शराबी शराब के नशे में चकचूर होकर माता, पत्नि, पुत्री, बहन, बेटी, भाभी आदि परिवारजनों के साथ अंट-संट बोलता हुआ असभ्य, अश्लील आदि विपरीत व्यवहार करता है। ऐसी शराब एवं शराबी को कौन भला-अच्छा मानेगा ? मिथ्यात्व भी ठीक शराब के जैसा ही विकृतिकारक है। शराब का नशा तो शायद एक-दो दिन रहता होगा, परन्तु मिथ्यात्व का नशा अज्ञान एवं अश्रद्धा के रूप में जन्मों जन्म तक रहता है। ठीक शराबी की तरह मिथ्यात्वी जीव को अजीके, अजीव को जीव, आत्मा को अनात्मा, मन, इन्द्रियों आदि को आत्मा मानता है, पुण्य को पापरूप और पाप को पुण्यरूप मानता है, धर्म को अधर्म रूप और अधर्म को धर्म रूप मानता है, जो स्वर्ग नरक है उसे न मानकर यहां पर ही सुख-दुःख की चरमावस्था में ही स्वर्ग नरक मानता है, लोक-परलोक कुछ भी न मानता हुआ जो कुछ है वह यही है ऐसा मानता है, पूर्व जन्म और पुनर्जन्म कुछ भी नहीं है, इस मान्यता के आधार पर चलता हुआ खा-पी कर मौज में मस्त रहना, बंध-मोक्षादि तथा आत्मा-परमात्मा आदि किसी भी तत्त्व में श्रद्धा न रखता हुआ विषय-वासना के वैषयिक भौतिक एवं पोद्गलिक सुखों में लीन रहना चाहता है, कर्म-धर्म को कुछ न मानता हुआ, आत्म कल्याण की बात को सर्वथा न सोचता हुआ मात्र शरीर की ही चिन्ता में लगा रहता है, पुद्गलानंदी और देहानंदी बनकर वह जीवनभर पाप करता रहता है, परन्तु जैसे जहर जानकर या अनजान सभी के ऊपर समान असर करता है, वैसे ही पाप-कर्म सभी के जीवन में समानरूप से उदय में आते हैं। मिथ्यात्वी जीव दुःखों के सामने त्राहीमाम पुकार उठता हैं । अतः महापुरुषों ने मिथ्यात्व को पाप ही नहीं परन्तु सभी पापों में सबसे बड़ा महापाप कहा है। ऐसा महापाप सर्वथा हेय-त्याज्य एवं अनाचरणीय होता हैं । अतः हमें इससे बचना ही चाहिए । भव्य (भवी) प्रभव्य (अभवी) जीवजिस मिथ्यात्व के विषय में इस प्रकार की चर्चा की जा रही है, उस मिथ्यात्व का अधिकारी कौन है ? यह मिथ्यात्व किसमें होता है ? इस दृष्टि से विचार करने पर यह स्पष्ट ही दिखाई देता है कि मिथ्यात्व मानसिक वैचारिक एवं अश्रद्धारूप कर्मजन्य स्थिति है। अत: इससे यह सिद्ध होता है कि मिथ्यात्व अजीव को नहीं परन्तु जीव को ही होता है । अजीव ज्ञान-दर्शनादि चेतनादि रहित कर्म की गति न्यारी
SR No.002481
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherJain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha
Publication Year
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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