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की इच्छा करता है । बस, इसके शिवाय भगवान, गुरु, धर्म आदि उसके लिए कुछ भी नहीं हैं ।
देव-गुरु-धर्म स्वरूप विषयक मिथ्यात्व --
मिथ्यात्वी जीव अपनी अज्ञानपरक मिध्यावृत्ति के कारण देव-गुरु-धर्म आदि तत्त्वों को नहीं मानता है तथा जैसा स्वरूप देव - गुरु-धर्म का है, ठीक उससे विपरीत ही मिथ्यात्व मानता है । यह बताते हुए लिखा हैं कि
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अदेवे देव बुद्धिर्या, गुरुधीरगुरौ च या । अधर्मे धर्म बुद्धिश्च मिथ्यात्वं तद्विपर्ययात् ॥
जो देव (भगवान) नहीं है, उनमें भगवानपने की बुद्धि, जो त्यागी तपस्वी गुरु नहीं है, उनमें गुरुपने की बुद्धि, जो धर्म नहीं है ऐसे हिंसादि पापाचार में धर्मबुद्धि रखना यह अज्ञानपरक विपरीत होने के कारण मिथ्यात्व कहलाता है । जो परम अर्थात् सर्वोत्तम, सर्वश्रेष्ठ, सर्वोच्च कक्षा की सर्व कर्मरहित, सर्वज्ञ, वीतरागी आत्मा है उसे परमात्मा कहते हैं । उन्हें भी मिख्यात्वी जीव भगवान के रूप में मानने या स्वीकारने के लिए तैयार नहीं है । जिस तरह सुअर मिष्टान्न आदि शुद्ध भोजन को छोड़कर मल-मूत्र ही पसन्द करता है, उसी तरह मिथ्यात्वी जीव भी वीतरागी सर्वज्ञ अरिहंत को छोड़कर रागी -द्वेषी, संसारी- भोगलीला एवं पापलीला में आसक्त को भगवान के रूप में मानने की विपरीत बुद्धि रखता है ।
वैसे ही कंचन - कामिनि के त्यागी विरक्त वैरागी, पंचमहाव्रतधारी, समस्त पाप के त्यागी, मोक्ष मार्ग के उपदेशक ऐसे ३६ गुण सम्पन्न पवित्र साधु-सन्तमुनिमहात्माओं को गुरु के रूप में न मानता हुआ मिथ्यात्वी जीव अपनी विपरीत वृत्ति एवं अज्ञान दशा के कारण उनसे जोगी-जोगटा; बाबा-फकीर आदि को गुरु के रूप में मानने लगता है, जबकि वे लोभी धूर्त, विषय- कषाय के कामी, कंचनकामिनि के संगी, भोग एवं पापलीला के रागी, व्रत- महाव्रत रहित ऐसे बहलाकर्मी मिथ्यात्वी गुरु के रूप में मानने की वृत्ति रखता है ।
मिथ्यात्व जीव धर्म के विषय में भी श्रद्धा नहीं रखता है, परन्तु ठीक इससे विपरीत वह अधर्म में रुचि रखता हैं । धर्म से विपरीत अधर्म तो पाप ही कहलाता है । फिर भी मिथ्यादृष्टि जीव अधर्म पाप में रुचि रखता है । वह अधर्म या पापा
कर्म की गति न्यारी
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