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विषयक उसका ज्ञान ही अज्ञान रूप में परिणत है, एवं उसकी बुद्धि सदा विपरीत ही चलती है। यहां अज्ञान शब्दके दो अर्थ हैं । एक तो ज्ञान का अभाव और दूसरा अल्प या नाम मात्र का ज्ञान और बह भी उल्टा । ज्ञान का अभाव लिखने का अर्थ यह है किपदार्थ के सही-सम्यग् यथार्थ ज्ञान का अभाव मिथ्यात्वी में होता है । परन्तु ऐसा अर्थ यहां नहीं है कि सर्वथा ज्ञान ही नहीं है, क्योंकि सर्वथा ज्ञान के अभाव वाला तो अजीव ही होता है, जबकि ज्ञान एक मात्र जीव द्रव्य का गुण है। मिथ्यात्वी भी मूलतः जीव ही है । अतः वह भी ज्ञानगुणवान् तो है परन्तु उसका ज्ञान यथार्थ सम्यगज्ञान से सर्वथा विपरीत ही होता है । अत: वह ज्ञानवान् नहीं अपितु अज्ञानवान् कहलाता है । ऐसी अज्ञानवृत्ति वाला मिथ्यात्वी जीव मुख्यतः नास्तिक ही होता है। आत्मा-परमात्मा, लोक-परलोक, पुण्य-पाप, कर्म-धर्म, स्वर्ग-नरक, पूर्वजन्म-पूनर्जन्म, आश्रव-संवर, तथा वंध-मोक्षादि ऐसे तात्विक विषयों में मिथ्यात्वी की वृत्ति हमेशा ही निषेधात्मक विपरीत ही रहती है। इन तत्त्वों के विषय में वह न तो सही ज्ञान, जानकारी रखता है, न ही उनमें श्रद्धा-मान्यता रखता है तथा सही दृष्टि से कभी सही आचरण भी नहीं करता है। ऐसे मुख्य ६ पद है, जिनमें वह · नकारात्मक दृष्टि अपनाता है।
नास्ति नित्यो, न कर्ता च, न भोक्तात्मा, न निर्वतः । . तदुपायश्च नेत्याहुमिथ्यात्वस्य पदानि षट् ॥
[अध्यात्म-सार]
१. आत्मा नहीं है, २. एकान्त नित्य ही है, ३. आत्मा कुछ भी कर्ता-हर्ता नहीं है, ४. आत्मा भोक्ता भी नहीं है, ५. मुक्ति-मोक्ष जैसा कुछ भी नहीं है, ६. मोक्ष प्राप्ति का उपाय-मार्ग-धर्मादि कुछ भी नहीं है। इस तरह इन मुख्य ६ विषयों में मिथ्यात्वी की वृत्ति नकारात्मक ही रहती है। वह पंच महाभूतों के अलावा जन्म-जन्मांतर में जाने-आने वाले आत्मा नामक कोई पदार्थ को नहीं मानता है । उसी तरह आत्मा को कर्म-धर्म का कर्ता-भोक्ता भी नहीं मानता है । इस तरह सर्वथा नास्तिक विचारधारा वाला वह अज्ञानी होता है । अतः संसार के वैषयिक, भौतिक एवं पौद्गलिक सुखों में ही स्वर्ग का सुख मानकर जीता है । ऐसा मिथ्यात्वी जीव विशेष पाप रुचि वाला होता है। तत्त्वों में न तो उनकी श्रद्धा होती है, और न ही धर्म के आचरण की कोई भावना रहती है। वह मात्र अपने दैहिक-भौतिक सुखों
कर्म की गति न्यारी