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यशकीर्ति की प्राप्ति हो, आदि सब प्रकार के सांसारिक सुख मिले इसके लिए प्रार्थना, या स्तुति करना, या भगवान ही यह सब कुछ देने वाले हैं, इस दृष्टि से मानना, या पूजना, या जापना, या मान्यता (मानता) आखड़ी, बाधा रखना। यह लोकोत्तर देवगत मिथ्यात्व कहलाता है । लोकोत्तर कक्षा के देव-गुरु-धर्म तीनों में श्रद्धा या मान्यता जरूर सही है, स्वरूप सही जानता है, परन्तु आराधना या उपासना जिस हेतु से करता है वह गलत मैं है, अतः यह विपरीत भावाचरण रूप मिथ्यात्व है । उदाहरण के रूप में जमे हलबा पुड़ी आदि बनानी है, आपको हलवा, पुडी के स्वरूप का ज्ञान भी सही हो, परन्तु यदि बनाने की रीति या विधि सुव्यवस्थित नहीं आती है, और जिस किसी तरह यदि एक भगोने में आटा, घी, शक्कर पानी आदि मिलाने पर हलवा नहीं बनेगा, उल्टी बाजी बिगड़ जाएगी, उसी तरह लोकोतर कक्षा के देव-गुरु-धर्म की प्राप्ति आपको जरूर हुई है, परन्तु यदि उपासना-आराधना की रीति या विधि-पद्धति या हेतु सही नहीं है तो विपरीत रीति-हेतु से की गई साधना वह भी मिथ्यात्व पोषक बन जाएगी। इस तरह लोकोत्तर कक्षा के देव-गुरु-धर्म आदि सही होते हुए भी, साधना विपरीत होने के कारण, मिथ्यात्व दोष लग जाएगा ।
५. लोकोत्तर गुरुगत मिथ्यात्वउपरोक्त हेतु ही इस भेद में भी है। सिर्फ भेद इतना ही है कि यहां देव के स्थान पर गुरु है । पंचममहाव्रतधारी, संसार के त्यागी, विरक्त वैरागी, त्यागी तपस्वी, कंचन-कामिनि के त्यागी एवं छत्तीस गुण के धारक साधु-मुनिराजों की मान्यता श्रद्धा एवं ज्ञान तो सही है, परन्तु उपासना की रीति-हेतु विपरीत है। जैसे संसार के त्यागी, वैरागी से संसार के रंग-राग पोषक आशीर्वाद लेना, शादी-सगाई हो जाय, स्त्री-पुत्र-संतान आदि प्राप्त हो, सत्ता-सम्पत्ति-पद-प्रतिष्ठा, यश-कीर्ति आदि मिले, एवं मैं जेल से छूट जाऊँ, सजा से मुक्त हो जाऊँ, इस केस में जीत जाऊँ, घुड़दौड़ में ; जीत जाऊँ, संकट से बच जाऊँ, फैक्ट्री-दुकान अच्छी चले आदि के विषय में ऐसी इच्छा या हेतु रखकर गुरु सुश्रुता सेवा, भक्ति आदि करना, सांसारिक सुख भोगों की अपेक्षा से साधु सन्तों को मातना-पूजना या वंदन करना या आशीर्वाद लेना यह सब इस प्रकार की मिथ्यवृत्ति है । अतः इसका त्याग भी हितावह है।
कर्म की गति न्यारी