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________________ १. लौकिक देवगत मिथ्यात्वदेव तत्त्व अर्थात् भगवान के विषय में लौकिक और लोकोत्तर दो भेद होते हैं । सर्वज्ञ-वीतरागी लोकोत्तर कक्षा के देव (भगवान) कहलाते हैं जबकि रागी द्वेषी अल्पज्ञ-भोगी-वैभवी तथा मोहादि दोषग्रस्त संसारी ऐसे लौकिक कक्षा के देव को भगवान रूप मानना यह लौकिक देवगत मिथ्यात्व कहलाता है । . २. लौकिक गुरुगत मिथ्यात्व इसमें गुरु के विषय की बात है। कंचन-कामिनि के भोगी, संसार के संगी, 'भोगासक्त एवं भोगलीला या पापलीला में रचे-पचे तथा अनाचारसेवी, कंदमूलादि अभक्ष के भक्षक, तथा उन्मार्गदर्शक ऐसे बाबा, फकीर, जोगी-जोगटा, सन्यासी-तापस, आदि को जो गुरुपद उपयोगी ३६ गुण के धारक नहीं है, उन्हें भी गुरु के रूप में मानना यह इस प्रकार का मिथ्यात्व है। ३. लौकिक पर्वगत मिथ्यात्वधर्माचरण के क्षेत्र में पर्व आदि पवित्र दिनों में जो कर्मक्षयकारक उपासना करनी चाहिए, वह न करते हुए उसका लक्ष्य छोड़कर कुछ और ही करें, या विपरीत ही करें, . इससे मिथ्यात्व दोष लगता है-"आत्मानं पुनाति इति पर्व"-जो आत्मा को पवित्र करे वह पर्व कहलाता है। आत्मा पवित्र कब होगी ? जब अशुभ कर्म का क्षय होगा तब । अशुभ पाप कर्म का क्षय कब होगा ? जब विशेष रूप से पर्व दिनों की उपासना करेगी तब । परन्तु जो लोक में प्रसिद्ध है ऐसे लौकिक त्यौहार है, जिसमें तप-त्यागादि की कर्मक्षयकारक साधना का नाम मात्र भी नहीं है तथा जिसमें 'सिर्फ खाना-पीना, तथा मनोरंजन का ही एक मात्र उद्देश्य है ऐसे होली आदि पर्व मानना या मनाना यह लौकिक पर्वगत मिथ्यात्व कहलाता है । ४. लोकोत्तर देवगत मिथ्यात्व लोकोत्तर कक्षा के सर्वोत्तम देवाधिदेब वीतराग भगवान जो सर्व दोष रहित हैं, राग-द्वेषादि रहित हैं, स्त्रो-शस्त्रादि संबंध रहित हैं ऐसे सर्वज्ञ अरिहंत भगवान को 'मानकर भी इहलोक के सुख की आकांक्षा, पौद्गलिक सुखों की इच्छा, मुझे अच्छी स्त्री मिले, संतान की प्राप्ति हो, धन-धान्य-सम्पत्ति मिले, सत्ता-पद-प्रतिष्ठा कर्म की गति न्यारी
SR No.002481
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherJain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha
Publication Year
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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