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इसी क्रम के आधार पर श्री वीरविजयजी महाराज ने चौसठ प्रकारी पूजा भी बनाई है। प्रशमरति प्रकरण में
सज्ज्ञान-दर्शनावरण-वेद्य-मोहायुषां तथा नाम्नः । गोन्त्रान्तराययोश्वेति कर्मबन्धोऽष्टधा. मौलः ॥ इह नाण-दसणावरण-वेअ-मोहाउ-नाम-गोआणि ।
विग्धं च पण-नव-दु-अट्ठवीस-चउ'तिसय-दु-पण-विहं । कर्मग्रन्थ में, नवतस्व प्रकरण में ठीक ऐसा ही श्लोक पाया जाता है । तस्वार्थाधिगम सूत्र में
आद्यो ज्ञान-दर्शनावरण-वेदनीय-मोहनीया-ssऽय-नार-गोवा-तिरायाः॥८-५॥
इस तरह आपाततः देखने पर विबिध ग्रन्थों में इसी क्रम से ८ कर्मों का उल्लेख किया गया है। क्रम का विशेष रहस्य तो ज्ञानी ही जाने । फिर भी उपन्यासक्रम इस प्रकार दर्शाया है-"चेतना लक्षणो जीव:" अर्थात् ज्ञानदर्शन रूप चेतनावान् जीव कहलाता है। अजीब से जीव को सर्वथा भिन्न करने वाला मुख्य भेदक गुण ज्ञान-दर्शन है। ये ही जीव के प्रधान-प्रथम गुण हैं । साकारोपयोगविशेषोपयोग रूप ज्ञान तथा निराकारोपयोग-सामान्योपयोग रूप दर्शन है। ऐसे ज्ञान का आवरक ज्ञानावरणीय कर्म है। ज्ञान से जाने हुए पदार्थ को देखने की 'दर्शन' शक्ति का जो आच्छादक है वह दर्शनावरणीय कर्म है । ज्ञान मुख्य होने से प्रथम क्रम पर ज्ञानावरणीय कर्म और दूसरे क्रम पर दर्शनावरणीय कर्म कहा है । ज्ञान और दर्शन के ये दोनों आवरणरूप ज्ञानावरणीय एवं दर्शनावरणीय अर्थात् अज्ञान और अदर्शन अपना विपाक सुख-दुख रूप दिखाते हैं । ज्ञानी सुख और अज्ञानी दुःख प्राप्त करता है । ऐसे सुख-दुःख का वेदन-संवेदन करने के लिए उनके बाद तीसरे क्रम पर वेदनीय कर्म को विपाक के हेतु रूप बताया है। ऐसी शाता और अशाता रूप सुखदुःख के वेदना में जीव को प्रिय-अप्रिय अर्थात् राग-द्वेष उत्पन्न होता है। राग के कारण मोहदशा उत्पन्न होती है । न मिलने पर द्वेष में कषाय की वृत्तियां बनती है। अतः चौथे नम्बर पर राग-द्वेष करने कराने वाला मोहनीय कर्म बताया है । ऐसे मोह में मोहित हुए जीव राग-द्वेषादि के कारण रागादिमान पदार्थों को प्राप्त करने के लिए आरम्भ-समारम्भ आदि अनेक पाप करके उस पाप की सजा को भोगने के लिए नरक-तिर्यचादि गति का आयुष्य बांधता है। आयुष्य कर्म बांधे बिना अन्य गति में
कर्म की गति न्यारी